Sunday, December 30, 2012

चुनाव में तय है, उनकी जीत और जनता की हार.



जरा गौर से पढे , सत्ता धारी गिरोह का गुलाम लोकतंत्र :

कहते है,लोकतंत्र में असली ताकत जनता में निहित होती है, उसके वोट से ही सत्ता बनती और बिगड़ती है
लेकिन आज लोकतंत्र का जो स्वरुप हमारे सामने है, समय के साथ उसमे जो बदलाव और जटिलताये आई है, उसे देख कर लगता नहीं, कि जनता की भूमिका इस मौजूदा लोकतंत्र में निर्णायक है. हमारे यहाँ बहु- दलीय शासन प्रणाली है,भाषा,धर्म,जाति, जैसे क्षेत्रीय भावनाओ से संचालित क्षेत्रीय राजनितिक दल है, बहुत कम राजनितिक दल ही है,जिनकी अखिल भारतीय पहचान अब शेष है.
बहुमत प्राप्त दल ही सरकार गठित करते है
निर्वाचन प्रक्रिया में राजनितिक दल किस तरह अपने उम्मीदवारो का चयन करते है,राजनितिक दलों के टिकिट बाटने का मानदंड क्या होता है, जग जाहिर है.धन बल और बाहु बल का चुनावो में कैसे पूरी निर्लज्जता के साथ कैसा प्रदर्शन होता है. सब जानते है. भ्रष्टाचार,तस्करी,करचोरी,अवैध उत्खनन, से अर्जित काले धन का बेशुमार प्रयोग चुनावो में किया जाता है.
उम्मीदवार का भ्रष्ट होना अपराधिक पृष्ठभूमि से होना जैसे एक अतिरिक्त योग्यता बन जाती है.
बिना राजनितिक दल के टिकिट के, एक सच्चरित्र,सज्जन और समाजसेवी व्यक्ति का चुनाव में भाग लेना और जीतना लगभग असंभव है.
जीत हर कीमत पर जीत, जीत की सम्भावना ही टिकिट देने का एकमात्र आधार है
हर राजनितिक दल अधिक से अधिक सीटे जीतना चाहता है, और ऐसे में दल बदलू या दागी, या अपराधिक छबि के लोगो को भी वे टिकिट देने से परहेज नहीं करते, क्योकि सदन में संख्या बल ही तो तय करता है, की सरकार किसकी बनेगी.अगर दुर्भाग्य से किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले तो गठ बंधन सरकार बनाई जाती है
विधायको और सांसदों कि खरीद फरोख्त होती है, इसके आगे की कहानी हम सब जानते है कि कैसे गठ बंधन धर्म का निर्वाह किया जाता है, और देश या प्रदेश की हितो की बलि चढ़ाई जाती है.
अब इस तथा कथित चुनाव में, जनता के पास क्या विकल्प बचता है ?.
नांग-नाथ और सांप-नाथ में जनता किसे चुने. जिन्हें वह वोट देता है, उन उम्मीदवारों का जनता से कोई सरोकार नहीं होता,उनकी सारी निष्ठां और प्रति बध्दता पार्टी और पार्टी आला कमान के प्रति होती है.
मतदान के बाद जैसे जनता की शक्ति विसर्जित हो जाती है,
झंडे का रंग चाहे बदल जाये. सरकारे नहीं बदलती,अभी ताजा उदहारण हम यू.प़ी. के दलो सपा/बसपा का राष्ट्रीय महत्व के मुद्दो पर दोमुहापन और ब्लेकमेलिग का देख सकते है,

क्या यह सच नहीं,कि राजनितिक दलो के घेरे में आज लोकतंत्र कैद होकर रह गया है. आप चाहे तो इन्हें सत्ता-धारी गिरोह भी कह सकते है.
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर,सभी राजीतिक दल एक मत थे.की भ्रष्टाचार पर अंकुश लगना चाहिए,संसद के बाहर सभी भ्रष्टाचार के विरोध में खड़े थे. कैसे वे संसद की सर्वोच्चता का दावा भी कर रहे थे, और संसद के भीतर किस तरह वे अपने दल गत मतभेद भुलाकर,जन लोक पाल के विरोध में लामबंद भी थे.क्या भ्रष्टाचार के नियंत्रण के मसले पर तब वे जन-मत की अवहेलना कर नहीं कर रहे थे.

राजनिति समाज सेवा का क्षेत्र है,फिर ऐसे क्या कारण है, की आज कोई भी सद-चरित्र,सज्जन और समाज सेवी व्यक्ति राजनिति में नहीं आना चाहता, क्या कारण है कि,जनता राज नेताओ को सम्मान की दृष्टि से नहीं अपितु घृणा की दृष्टि से देखती है.
और क्या यह सच नहीं की राजनिति आज समाज सेवा का क्षेत्र नहीं, वरन दीर्घ कालिक पूंजी निवेश का सुरक्षित क्षेत्र बन गया है.
क्या कारण है कि लोकतंत्र के इस महापर्व में आम आदमी की कोई सार्थक भूमिका नहीं है, और जिस प्रणाली में उम्मीदवारों की सुचिता का, उसकी योग्यता का,नैतिक मूल्यों में उसकी आस्था का,समाज के प्रति उनके समर्पण और योगदान का कोई मूल्य न हो, साम, दाम, दंड, भेद, जैसे भी हो, जीत ही जहाँ एकमात्र लक्ष्य हो, सत्ता के बहुमत का अर्थ जहाँ समाज के संसाधनों की ली लूट के रूप में परिभाषित किया जाये.विकाश के नाम पर विनाश की इबारत लिखी जाये.और अपने दलीय स्वार्थ के लिए सामाजिक समरसता और एकता को छिन्न भिन्न कर दिया जाये,क्या उस व्यवस्था से जनता का मोह भंग नहीं होगा.ऐसे लोक तंत्र में क्या फ़र्क पड़ता है,
मुहर कही भी लगाओ.
चुनाव में तय है, उनकी जीत और जनता की हार.

योगेश गर्ग

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