Sunday, December 29, 2013

रामलीला मैदान में मिथ ध्वस्त

दिल्ली के रामलीला मैदान में घूम रहा था। अरविंद केजरीवाल का शपथ ग्रहण चल रहा था। मुझे दो साल पहले का वो दिन याद आ रहा था। अन्ना हजारे अनशन पर बैठे थे। हजारों की भीड़ थी और संसद चल रही थी। कहीं किसी कोने एक स्पंदन दिख रहा था। लेकिन राजनेता और राजनीतिक दल अन्ना हजारे के आंदोलन का मजाक उड़ाने में लगे थे। उनके निशाने पर सबसे ज्यादा थे अरविंद केजरीवाल। और सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा रहा था कि आंदोलन करना आसान है और चुनाव लड़ना मुश्किल। नेतागण ऐसा आभास दे रहे थे मानो चुनाव महामानव ही लड़ सकते हैं। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने चुनाव लड़ा और दिल्ली में 28 सीटें जीतकर ये जता दिया कि सत्ता तंत्र ने जिस चुनाव को महामानवों का खेल बना रखा था दरअसल वो आम आदमी का चुनाव ही है। आम आदमी पार्टी की जीत ने ये साबित कर दिया कि राजनीति आम आदमी भी कर सकता है, सरकार भी बना सकता है। बस मुद्दे को जनता के सपनों से जोड़ने की जरूरत है।
ये वो वक्त था जब कि भ्रष्टाचार से हर आदमी त्रस्त था। छुटकारा पाना चाहता था। किसी को रास्ता सूझ नहीं रहा था। राजनीतिक दलों की दिलचस्पी भ्रष्टाचार से लड़ने में नहीं थी। ये भ्रष्टाचार ही उनको ताकत देता था और उनको आम आदमी से महामानव बनाता था। अरविंद और उनकी टीम ने भ्रष्टाचार से लड़ने का मन बनाया। आंदोलन की शुरुआत हुयी। 30 जनवरी 2011 को रामलीला मैदान में एक रैली हुई। जिस पर लोगों का ध्यान कम गया। बाकी रैलियों की तरह इसको कोई खास तवज्जो नहीं मिली। लेकिन उस दिन मुझे पहली बार लगा था कि एक लड़ाई लड़ी जा सकती है। रामलीला मैंदान में गैरराजनीतिक जमात के कहने पर लोग तो आये थे ही, दिल्ली से बाहर भी कई बड़े शहरों में लोग जुटे। ऐसे में जंतर-मंतर और बाद में रामलीला मैदान पर अन्ना के अनशन के समय लोगों के जुटने से मुझे बहुत ज्यादा हैरानी नहीं हुयी। हालांकि जब जिद्दी सत्ता तंत्र ने लोकपाल कानून बनाने से मना कर दिया तो लगा कि एक बार फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जेपी आंदोलन और वी पी सिंह आंदोलन की तरह अकाल मृत्यु को प्राप्त करेगा। अरविंद की टीम ने भी एक तरह से मान लिया कि आंदोलन से काम नहीं चलेगा। राजनीतिक दल बनाना पड़ेगा। दल बना लोगों ने फिर नाक मुंह सिकोड़ा। लेकिन चमत्कार हो गया। आंदोलन मरा नहीं था। वो नये सिरे से नया रास्ता तलाश रहा था। शनिवार को रामलीला मैदान पर घूमते हुए मैंने आंदोलन को सरकार के रूप में देखा। और वहां जमा लोगों की आंखों में सपना साकार होते देखा। उम्मीद जगी।
ये उम्मीद इस बात का प्रमाण है कि जेपी और वीपी सिंह की तुलना में ये आंदोलन ज्यादा स्थाई है। इसका असर कहीं अधिक कारगर साबित होगा। इसका असर आम आदमी पार्टी की जीत से नहीं पता चलेगा और न ही इसका आंकलन जीत से किया जाना चाहिए। मैंने अन्ना आंदोलन के समय भी कहा था कि आंदोलन की जीत भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून बनने से नहीं होगी। अन्ना आंदोलन की सबसे बड़ी जीत भ्रष्टाचार को एक राष्ट्रीय विमर्श बनाने में थी। अन्ना आंदोलन ने सामाजिक विमर्श को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई लेकिन आम आदमी पार्टी ने सामाजिक विमर्श के तौर के पर बनी जमीन को राजनीतिक विमर्श में तब्दील करने का काम किया। ये एक कदम आगे की भूमिका है। आम आदमी ने सबसे पहले राजनीति के इस मिथ को ध्वस्त किया कि चुनाव सिर्फ पैसे से, बाहुबल से और तिकड़म से लड़ा जाता है। एक साल पहले बने संगठन ने सीमित साधनों में चुनाव में आशातीत सफलता हासिल की। लंबे समय के बाद चुनावों में चना चबैना खाकर प्रचार करने वाले दिखायी दिए। पैसे के दम पर कार्यकर्ताओं की फौज की जगह नई उमर के बच्चों का रेड लाइट पर रुकती कारों में प्रचार करते दिखना और पोस्टर पम्पलेट बाटंना, एक नयी राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत है। ये भारतीय लोकतंत्र में मामूली घटना नहीं है। चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए किसी तरह विधायकों की तोड़फोड़ न करना और सिर्फ अपने मुद्दों पर ही अटल रहना और उसकी जगह जनता के बीच सीधे जाकर सरकार निर्माण में लोगों की भागीदारी की खोज करना एक दूसरे मिथ को ध्वस्त करना था। तकरीबन एक सप्ताह तक दिल्ली के साथ देशभर के लोगों के बीच बहस को जन्म देना चुनाव में एक नया प्रयोग है। वर्ना सरकार निर्माण की कवायद या तो बंद कमरों में होती थी या फिर पंच सितारा होटलों में सूटकेस खोले जाते थे। इस बार विधायकों की खरीदफरोख्त नहीं हुई ये क्या कम बड़ी उपलब्धि है?
फिर आम आदमी ने एक और बड़ी रेखा खींची। उन्होंने साफ कहा कि उनके नेता और मंत्री किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं लेंगे। लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं किया जायेगा। अरविंद खुद मुख्यमंत्री होने के बावजूद मुख्यमंत्री के तौर पर निर्धारित बंगला नहीं लेंगे। फ्लैट में ही रहेंगे। मंत्री भी बंगलों की जगह अपने घरों में निवास करेंगे। शपथ ग्रहण समारोह इस देश में दर्जनों बार खुले में हुये। अरविंद के पहले साहिब सिंह वर्मा ने छत्रसाल स्टेडियम में शपथ ली थी। ऐसे में रामलीला मैदान का समारोह चौकाता नहीं। चौंकाता है मुख्यमंत्री और पूरी कैबिनेट का सरकारी गाड़ियों की जगह मेट्रो में चलना। वर्ना देश में मंत्री, विधायक और सांसद बनने का मतलब है लाल बत्ती, सुरक्षा के तामझाम, ब्लैक कैट कमांडोज, आगे पीछे हूटर बजाती गाड़ियां, ट्रैफिक का रुकना और बड़े बंगले हथियाने के लिये नानाप्रकार की जुगत। कुछ लोग अभी इसको ड्रामा करार दें। लेकिन लोग ये भूल जाते हैं कि चुनाव के लिये प्रत्याशी बनते ही इन तमाम चीजों के मद्देनजर शपथपत्र आम आदमी पार्टी ने दाखिल करा लिया था। मुझे नहीं पता इसके पहले इस तरह की कवायद कभी हुयी थी। आजादी के बाद जरूर आदर्शवाद और सादगी भारतीय राजनीति का एक चेहरा था पर बीते दिनों ये चेहरा धूमिल पड़ता गया और बाद में ये चेहरा ही गायब हो गया। भारतीय राजनीति में सादगी की वापसी पूरी राजनीति और चुनावी बिरादरी को बदलने के लिये मजबूर कर देगी। रामलीला मैदान का संदेश नयी राजनीति का नया आगाज है।

http://khabar.ibnlive.in.com/blogs/16/953.html

क़िस्सा ए शपथ ग्रहण


साहब मैं इंकम टैक्स में एल डी सी हूँ । शपथ ग्रहण समारोह में लोगों से हाथ छुड़ा कर तेज़ी से निकल रहा था तभी किसी ने मज़बूती से हाथ खींच लिया । मेरे पास अरविंद केजरीवाल के बहुत किस्से हैं । एक सुना दीजिये । टाइम नहीं है । ग्यारह बजने में कुछ ही मिनट रह गए थे । मुझे लाइव कवरेज के लिए जाना था । अलग अलग लोगों से कई किस्से सुनाई दिये , क्रमश: लिख रहा हूँ । 

एल डी सी ने अरविंद की कहानी यूँ सुनाई । एक रोज़ घोर बारिश में मैं सुबह सुबह दफ़्तर पहुँचा । पानी भर गया था । मैं पी डब्ल्यू डी को फ़ोन कर बाहर आया तो देखा कि एक आदमी पतलून मोड़कर झाड़ू चला रहा है । नालियों को साफ़ कर रहा है । मुझे लगा कि दफ़्तर का चपरासी होगा । मैंने कहा कि कंप्लेन कर दिया है । तो उसने जवाब दिया कि पी डब्ल्यू डी वाले तो तीन घंटे में आयेंगे । ज़रा गटर का ढक्कन उठाने में मदद कीजिये । मैंने मदद कर दी । थोड़ी देर में पानी साफ़ हो गया । सबके आने का टाइम हो गया था । कमरे में फ़ाइल लेकर गया तो देखा कि यह तो वही है जो गटर साफ़ कर रहा है । ये तो मेरा कमिश्नर है । 

कहते कहते अरविंद से उम्र में काफी बड़े लग रहे जनाब ने कहा कि अरविंद ने हम सबको प्रेरित किया । हड़काया नहीं । समझाया कि रिश्वत मत लो । वे हम लोगों को काफी समझाते थे । तब से मैंने रिश्वत लेनी बंद कर दी । मैं हमेशा नान असेसमेंट की पोस्टिंग लेता हूँ । असेसमेंट की पोस्टिंग के लिए न तो रिश्वत देता हूँ और न लेता हूँ । 

दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने बैरिकेड के दूसरी तरफ़ से मुझे पकड़ लिया । कहा कि आप हमारा मसला क्यों नहीं उठाते । हमें आठ घंटे की शिफ़्ट दे दो । बच्चों के लिए क्रैश होना चाहिए । एक दिन की छुट्टी तो हो हफ्ते । हम रिश्वत नहीं लेंगे । अभी हम चौबीस घंटे काम करते हैं । कोई छुट्टी नहीं । कौन चाहता कि रिश्वत लें । जिसे बताता हूँ कि कांस्टेबल हूँ वो मुझे चोर समझता है । भाई साहब ईमानदारी की रोटी खाने का दिल करता है । आज यहाँ ड्यूटी लगी है तबीयत मस्त है । 

भागते हुए एक लड़के की आवाज़ सुनाई दी । छोटा सा लड़का होगा । मेरी बहन को जलाकर मार दिया है । कोई केस नहीं हो रहा है । 

मंच के क़रीब पहुँचने ही वाला था कि मैं डेमोक्रेसी पढ़ाती हूँ । यह सही में जनता के लिए जनता के द्वारा वाला लोकतंत्र है । मैं आज अकेले आई हूँ । देखिये इस भीड़ में अकेली बैठी हूँ । 

भाई साहब आज सतयुग आ गया है । तभी किसी ने आवाज़ दी कि आज लगता है कि कृष्ण का जन्म हो रहा है । एक ने कहा जय श्री राम । राम राज अरविंद लायेंगे । 

आप भी चुनाव लड़ जाओ । पत्रकारिता में कुछ नहीं रखा है । लोगों की सेवा करो । नहीं जी । राजनीति मैं नहीं करूँगा । अरे आप मत करना । हम आपको जीता देंगे । :) 

ये लीजिये अमरूद खाइये । आम आदमी का अमरूद । 

मैंने एक आपाई से सवाल कर दिया िक लोग आपके आचरण को देख रहे हैं । जवाब मिला कि हमें अहसास है । क्या है न जी । अभी तक हमें भ्रष्ट नेता मिले हैं तो हम भी वैसे हो गए हैं । अब ईमानदार नेता मिला है तो हम भी हो जायेंगे । 

स्टेशन की वीआईपी पार्किंग में वहाँ के कर्मचारियों के साथ बैठा था । शपथ ग्रहण से लौट कर थक गया था । गणेश ने कहा कि एक बात है गुरु जी । अरविंद की रैली में वो लोग आते हैं जिनकी तनख्वाह पंद्रह से बीस हज़ार है । मोदी की रैली में वो लोग आते हैं जिनकी तनख़्वाह पचास हज़ार से अधिक है । 

ये कहानियाँ खुद को याद दिलाने के लिए लिखीं हैं ।.....Raveesh Kumar

इतना न रो कि कब्र में मुर्दे भी हंस पड़ें


नरेंद्र मोदी कैसे इंसान हैं? इंसान के रूप में भगवान हैं या आदमी के रूप में शैतान हैं? क्या वह अत्यंत क्रूर और शातिर हैं जैसा कि उनके विरोधी बताते हैं या नरमदिल और मृदुभाषी हैं जैसा कि उनके प्रशंसकों का कहना है?

मोदी जैसों को समझना बहुत ही मुश्किल है। खास कर हम जैसों के लिए जो उनके करीब नहीं हैं। वह पब्लिक में बहुत कम बोलते हैं। अगर बोलते हैं तो एक एजंडा के तहत जहां उनका मकसद होता है अपनी और अपने काम का ढिंढोरा पीटना और  विरोधियों, खासकर कांग्रेस के खिलाफ ज़हर उगलना। यह गलत भी नहीं है क्योंकि कांग्रेस भी अपनी तारीफ करने और मोदी के खिलाफ ज़हर उगलने में कम नहीं है। कहने का मतलब यह कि मोदी के भाषण उनके अपने बारे में ज़्यादा कुछ नहीं बताते सिवाय इसके कि उनका इतिहास-भूगोल आदि का ज्ञान बहुत ही कम है लेकिन उससे किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस देश का संविधान अनपढ़ों को भी सीएम या पीएम होने की इजाजत देता है। जब राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बन सकती हैं तो नरेंद्र मोदी के पीएम बनने पर कोई कैसे आपत्ति कर सकता है!

लेकिन कभी-कभी वह कुछ बोल देते हैं। जैसे कुछ महीने पहले एक इंटरव्यू में उन्होंने गुजरात दंगों में मारे गए मुसलमानों के बारे में सवाल पूछे जाने पर सीधा जवाब न देते हुए कहा था कि आप किसी गाड़ी में बैठे हों और उस गाड़ी के नीचे कोई कुत्ते का बच्चा आ जाए तो भी आपको तकलीफ होती है। शुक्रवार को फिर उन्होंने एक ब्लॉग लिखकर ( ब्लॉग पढ़ें) बताया है कि दंगों के दौरान और दंगों के बाद उन पर क्या गुज़री (खबर पढ़ें)। यदि मोदी जो लिख रहे हैं, वह सच है तो वाकई उनके साथ बहुत ही अन्याय हुआ है। लेकिन क्या वह सच बोल रहे हैं?

मेरे पिताजी कहा करते थे, 'कोई क्या कहता है, इससे किसी इंसान की पहचान नहीं होती। इंसान की पहचान  इससे होती है कि वह करता क्या है।' शायद वह किसी महापुरुष के कथन को अपनी भाषा में समझा रहे थे या अंग्रेज़ी की कहावत - Action speaks louder than words का हिंदी तर्जुमा कर रहे थे। जो हो, वह बात मैंने गांठ बांध ली और आज मोदी को उनकी बातों से नहीं, उनके कामों के आधार पर जांचने की कोशिश करूंगा।

मोदी के राज में दंगे हुए। दंगों में हिंदू और मुसलमान दोनों मारे गए। लेकिन मोदी किसी मुस्लिम राहत शिविर में नहीं गए सिवाय एक बार जब तक अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उन्हें आलम शाह कैंप जाना पड़ा। और राहत शिविरों के बारे में उनका क्या सोचना था, यह 9 सितंबर को बहुचरजी में उनके द्वारा दिए गए भाषण से ज़ाहिर होता है। उन्होंने कहा था, 'क्या हम बच्चे पैदा करने के लिए राहत शिविर चलाएं।' इसके अलावा मार्च 2002 में इंडिया टुडे को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, 'यह केवल सांप्रदायिक दंगे नहीं थे बल्कि एक जन आंदोलन जैसा था।' 2002 में दंगों को जन आंदोलन बतानेवाले मोदी आज उसे विवेकहीन हिंसा बताएं तो कौन भरोसा करेगा?

यही नहीं, दंगों में मोदी सरकार की भूमिका के खिलाफ जिस किसी अधिकारी ने ज़बान खोली, मोदी सरकार उसके पीछे पड़ गई। ऐसे बीसियों उदाहरण हैं। अभी हाल के टेप में तो उनके सिपहसालार अमित शाह साफ बोलते पाए गए हैं कि फलां अधिकारी को इतने सालों के लिए अंदर करवा दो। क्या यही तरीका अपनाते हैं हमारे नरमदिल मोदी अपने विरोधियों को सबक सिखाने का? हमें तो यह माफिया का तरीका लगता है।

मोदी के मन में इस्लाम और मुसलमानों को लेकर कितना द्वेष है, इसका सार्वजनिक नज़ारा तब देखने को मिला जब एक जनसभा में उन्हें मुस्लिम टोपी पहनाने की कोशिश की गई और उन्होंने इनकार कर दिया। क्यों भई? यदि आप साफा बांध सकते हो, टीका लगा सकते हो तो मुस्लिम टोपी पहनने से क्या आपका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा?

मोदी कम बोलते हैं और बहुत सतर्क होकर बोलते हैं लेिकन जितना बोलते हैं, उससे उनके अल्पसंख्यक विरोधी मन-मस्तिष्क का संकेत मिल जाता है। मुझे याद है जब दंगों के बाद हुए चुनावों में लिंग्दोह के कारण उनको परेशानी हो रही थी तो वह रैलियों में उनका पूरा नाम बोलते थे - जेम्स माइकल लिंग्दोह। सोनिया गांधी के बारे में भी जब बोलते थे तो उनका पूरा नाम बोलते थे। क्यों? ताकि श्रोताओं को पता चल जाए कि ये ईसाई हैं और इसीलिए िहंदूवादी मोदी को परेशान कर रहे हैं। अभी पिछले साल चुनाव रैली में मोदी ने कहा, 'यदि कांग्रेस को वोट दिया तो अहमद मियां पटेल आपका मुख्यमंत्री बन जाएगा।' मोदी अपने भाषणों में हिंदू, मुसलमान नहीं बोलते, लेकिन अहमद पटेल का पूरा नाम लेकर वोटरों को सावधान कर दिया कि कांग्रेस आई तो मुसलमान बन जाएगा सीएम। वोटरों ने उनका संदेश ग्रहण कर लिया और मोदी का काम बन गया।

मोदी की रणनीति स्पष्ट है। हिंदुत्व और विकास - ये उनके दो शस्त्र हैं। जहां जो काम आ जाए, वहां वे उसका इस्तेमाल करते हैं। गुजरात में पहले विकास वाला चेहरा दिखाते हैं। जब मामला मुश्किल लगता है तो सांप्रदायिकता वाला चेहरा आगे कर देते हैं। जहां तक बाकी देश का सवाल है तो उनको पता है कि वहां अभी सांप्रदायिकता की फसल के लिए मिट्टी सही नहीं है। उनको यह भी पता है कि बीजेपी अभी उतनी ताकतवर नहीं है कि अपने बल पर 270 सीटें ले आए और उसे बाकी पार्टियों के सहयोग की ज़रूरत होगी और ये वे पार्टियां हैं जो या सो स्वभावत: धर्मनिरपेक्ष हैं या मुस्लिम वोटों की खातिर धर्मनिरपेक्ष बनी हुई हैं। इसीलिए आजकल विकास वाला चेहरा सामने किए घूम रहे हैं। लेकिन विश्वास मानिए, जिस दिन इस देश में कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ, मोदी अपना 'हल' लेकर सामने आ जाएंगे।

लेकिन तब तक तो बीजेपी को एक नरमदिल विकासवादी मोदी को बेचना है। इसीलिए आज का ब्लॉग आया है। लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, आदमी अपनी करनी से पहचाना जाता है न कि अपनी कथनी से। यदि कथनी के आधार पर ही इंसान के सही-गलत का फैसला करना होता तो आज आसाराम बापू अपने आश्रम में प्रवचन कर रहे होते और तरुण तेजपाल अपनी मैगज़ीन निकाल रहे होते, वे रेप के आरोप में जेल में बंद न होते।

Source => http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/entry/narendra-modi-s-crocodile-tears-on-gujarat-riots

Thursday, December 26, 2013

केजरीवाल के आने से कितने खौफ में हैं भ्रष्ट सरकारी अधिकारी...

देश की राजधानी दिल्‍ली में सत्ता बदल गई है, सत्ता के साथ सचिवालय में नजारे भी बदलने लगे हैं. इसी के साथ हुक्मरानों की नीयत और नीति भी बदलने लगी है. शीला दीक्षित 15 साल तक दिल्‍ली पर राज करने के बाद अब सत्ता के मुख्यालय से रुखसत हो चुकी हैं. दिल्‍ली में राजनीति ने एक नई करवट ली है और नए मुख्‍यमंत्री बनने जा रहे अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर मुख्‍यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं और आगे भी वे भ्रष्‍टाचार से लड़ने का दावा कर रहे हैं.

मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने में अभी केजरीवाल को कुछ वक्त और लगेने वाला है. लेकिन दिल्‍ली सचिवालय में तो वक्त से पहले ही तमाम कुर्सियां हिलने लगी हैं. आज तक को पता लगा कि जाते हुए मंत्रियों के स्टाफ और कई गोपनीय विभागों में फाइलें और दस्तावेज खत्म किए जा रहे हैं. चुन-चुनकर फाइलों से कागज निकालकर फाड़े जा रहे हैं और अफसरों की मेजें और आलमारियां साफ की जा रही हैं.

आज तक की खुफिया टीम कैमरा लेकर जैसे ही शीला सरकार के एक दबंग मंत्री अरविंदर सिंह लवली के दफ्तर में घुसी, तो वहां का नजारा चौंकाने वाला था. दिल्ली सचिवालय में अरविंदर सिंह के ऑफिसर ऑन स्‍पेशल ड्यूटी (ओएसडी) लवानी के ऑफिस में भ्रष्‍टाचार मिटाने वाले झाड़ू से सबूतों को मिटाया जा रहा है. लवली तो दिल्‍ली सचिवालय से आउट हो चुके हैं, लेकिन ओएसडी साहब का स्टाफ फाइलों की सफाई में जुटा हुआ है.

फाइलों की सफाई में व्‍यस्‍त लवली के ओएसडी आज तक की टीम को देखकर पहले तो सकपका गए. फिर कुछ देर संभलकर उन्‍होंने खुद को नॉर्मल किया. जब उनसे पूछा गया कि दफ्तर में फाइलें क्यों फाड़ी जा रही हैं तो ओएसडी साहब बिल्कुल अनजान बन गए. उनके सहयोगी सफेद झूठ पर उतर आए. उन्होंने कहा कि दफ्तर में कोई फाइल नहीं फाड़ी जा रही है. शायद उन्हें ये मालूम ही नहीं था कि सरकारी दस्तावेज फाड़ने के सबूत कैमरे में पहले ही कैद हो चुके हैं.

सचिवालय में एक तरफ सरकारी फाइलें फाड़ी जा रही हैं तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ऑफिस में तैनात कई अफसर केजरीवाल के डर से अपना ट्रांसफर कराने के लिए परेशान हैं. ये बात कोई और नहीं बल्कि सचिवालय का स्‍टाफ अपने मुंह से कह रहा है.
AAJ TAK TEAM

देखिए केजरीवाल के आने से कितने खौफ में हैं भ्रष्ट सरकारी अधिकारी... http://aajtak.intoday.in/video/operation-kejriwal-1-750557.html

Wednesday, December 25, 2013

Modi Ji desh ki majboori hain, par apna Arvind toh jaroori hai

Two impressing leaders of Indian Politics. Arvind Kejriwal and Narendra Modi.

Read this wonderful article on "Why Arvind Kejriwal makes more sense than Narendra Modi?", read to know why youths are more inclined towards AK than Namo, why AK wave seems more powerful than Namo wave. While Arvind is fighting to change the corrupt system, at the other hand Mr. Modi is itself the system. Arvind puts the people first, Mr. Modi puts the BRAND first. Arvind is natural phenomenon, while Modi is instigated phenomenon.
Arvind is the product of a movement while Modi Ji is the product of indoctrination. Arvind unites, Modi divides. Arvind believes in #Swaraj , Modi Ji believes in #MeraRaaj. Common man, students, teachers are working for Arvind , while Modi hires tech-professionals. Arvind has volunteers, Modi Ji has got workers.

In nutshell "Modi Ji desh ki majboori hain, par apna Arvind toh jaroori hai"

Must read here : www.sify.com/mobile/news/why-arvind-kejriwal-makes-more-sense-than-narendra-modi-news-columns-nmymInifedd.html?

Tuesday, December 24, 2013

गठबंधन की सरकार और अल्पमत की सरकार में अंतर

गठबंधन की सरकार और अल्पमत की सरकार में अंतर

गठबंधन की सरकार
1. दोनों दल मिलकर सरकार बनाते है.
2. दोनों पार्टियों के विधायक मंत्री पद ग्रहण करते है.
3. दोनों पार्टियों के अजेंडे के कुछ मुद्दे 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम' में शामिल किये जाते है.
4. दोनों दल सभी प्रशासनिक निर्णय मिलकर करते है.

अल्पमत की सरकार
1. केवल एक ही पार्टी की सरकार होती है.
2. केवल उसी दल के लोग ही मुख्यमंत्री/मंत्री बनते है.
3. केवल उसी का अजेंडा/घोषणापत्र लागू होता है.
4. सरकार के किसी भी निर्णय में किसी भी दूसरी पार्टी का दखल नहीं होता है.

"आप" दिल्ली में अल्पमत की सरकार बना रही है, ना कि किसी गठबंधन की. "आप" ने आजतक कभी भी कांग्रेस/भाजपा से कभी समर्थन नहीं माँगा है. कांग्रेस ने स्वयं केवल संख्या गणित के हिसाब से बाहर से इस अल्पमत की सरकार को समर्थन देने का बोला है. हालाँकि भाजपाई तो इस बात को जानकर भी अनजान बने रहेंगे, और किसी भी तरीके से आप को बदनाम करने की कोशिश करेंगे. मगर हमे पूरी उम्मीद है, कि एक साधारण व्यक्ति को इसे समझने में कोई देर नहीं लगेगी.

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Wednesday, December 18, 2013

8 major differences between the Bill Passed by Congress (Jokepal) and Jan Lokpal Bill

here are 8 major differences between the Bill Passed by Congress (Jokepal) and Jan Lokpal Bill (Claimed by AAP ).Read this post with little patience and you will understand that How Indian Janta is fooled by this newly passed Lokpal(Jokepal) bill.

1.
Appointment:
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Jokepal :
Lokpal will be selected 5 members: by PM, Leader of Opposition, Speaker, CJI, and one jurist nominated by these 4.(thus majority of those who will select Lokpal will be from the political class, who themselves will need to be investigated by the Lokpal)
Actual Lokpal:
Lokpal will be appointed by a 7 member committee, consisting of 2 SC judges, 2 HC judges, 1 nominee of CAG+CVC+CEC, PM and Leader of Opposition

2.Removal:
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Jokpal:
For removal, only the Govt, or 100 MPs can make a complaint to the SC.
(thus rendering the removal largely under control of the government and the political class, and compromising its independence)
Actual Lokpal:
Any citizen can complain to the SC seeking removal of any member of Lokpal.

3.Investigating machinery:
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Jokpal:
The Lokpal would have to get the complaints investigated by any investigating agency, including the CBI, all of which would continue to remain under the administrative control of the government. The transfer, postings and post-retirement jobs of CBI officers would be under the control of the govt, thus compromising the independence of the investigative machinery.
Lokpal:
The CBI will be brought under the administrative control of the Lokpal, so that the investigating machinery can be made independent of the government.

4.Whistleblower protection:
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Jokpal:
Not mentioned in the government’s bill.

Actual Lokpal:
The Jan Lokpal Bill includes provisions for protection of whistleblowers.

5.Citizens Charter:
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Jokepal:
Not mentioned in the government bill.
(this was one of the unanimous assurances made by parliament to Anna Hazare when he broke his fast in August 2011)

Actual Lokpal:
The Jan Lokpal instituted a mechanism for prosecution of government officials if they failed to fulfill their duties under the citizens charter, which was to be created in this Bill.

6.Lokayuktas in the State:
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Jokepal:
Have been left to the discretion of the state governments.
(this was one of the unanimous assurances made by parliament to Anna Hazare when he broke his fast in August 2011)
Actual Lokpal:
The Jan Lokpal bill sought to create a Lokayukta along the same lines as the one at the center.

7.Frivolous Complaints:
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Jokepal:
Any person making a false or frivolous complaint could be jailed for up to 1 year, which will deter even honest complainants from going to the Lokpal.
Lokpal:
There was a penalty up to Rs. 1 lakh, but no provision for imprisonment.

8.Ambit of the Lokpal:
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Jokepal:
Judiciary excluded completely and MPs excluded in respect of their votes and speeches in Parliament.
Lokpal:
Included all public servants, including judges and MPs, with regard to all their public duties.