Thursday, September 26, 2013

लोकतंत्र

लोकतंत्र की परिभाषाओं पर अगर गौर किया जाए तो अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी परिभाषा-"लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा शासन" शायद सबसे
सटीक और प्रसिद्द है। लोकतांत्रिक प्रणाली के मूल में शासन का उत्तरदायित्य स्वयं जनता का ही आता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो व्यक्ति और समाज के लिए क्या कायदे-कानून होंगे इसका निर्णय जनता ही करती है।


लोकतंत्र-स्वतंत्रता, भागीदारी,विकल्प,अधिकार,प्रतिनिधित्व
लोकतंत्र के दो रूप प्रचलित है एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष। लोकतंत्र की सफलता उसमें जनता की भागीदारी पर करती है, उसका स्वरुप भले ही कुछ भी हो। जनता अगर स्वयं शासन  करने में सक्षम हो तो प्रत्यक्ष लोकतंत्र स्थापित हो सकता है लेकिन अगर जनता सक्षम न हो तो  फिर प्रतिनिधि लोकतंत्र ही संभव हो सकताहै। प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए जनसंख्या आकर का जितना छोटा होगा उतना ही अच्छ रहेगा या फिर किसी बड़े भौगोलिक इकाई पर शासन करने के लिए उसे कई छोटे-छोटे भागों में बांटना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ये किसी गावों की बहुलता वाले देश में ग्रामसभाओं को मजबूत करने जैसा है। सत्ता को विकेंद्रीकृत कर गांधी जी के ग्राम-स्वराज को लाया जा सकता है। भारत में पेसा-1996 (Panchayat Extension to Scheduled area Act) और फेरा-2006 (Forest Right Act) जैसे कानून इस दिशा में मज़बूत कदम हो सकते हैं। प्रत्यक्ष लोकतंत्र वैसे तो आदर्श स्थिति ही अधिक लगती है लेकिन फिर भी कुछ हद तक इसका प्रतिबिम्ब स्वित्ज़रलैंड में देखने मिलता है जहाँ कानून बनाने, उसमें संसोधन करने और किसी कनून को वापस (हटाने) करने से संबंधी मुद्दों पर जनता की राय ली जाती है। लेकिन वास्तविक रूप से प्रत्यक्ष लोकतंत्र वर्तमान में कहीं नहीं मिलता।

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की आलोचना करता हुआ एक कार्टून
ऐसी स्थिति में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को ही अधिक जन्नौमुखी बनाने की जरुरत है। उसमे जनता की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है। वैसे तो भारत 65-66 साल के अपने इतिहास में कई गौरवमयी लोकतांत्रिक उपलब्धियों को समेटे हुए है लेकिन फिर भी 'लोकतंत्र के मंदिरों' {संसद/विधानमंडल} में बढ़ता बहुबल और धनबल भारत के नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से दूर कर रहा है। इस स्थिति को और बिगड़ने से पहले हमे कुछ कदम उठाने की जरूरत है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में अगर सुधारों की बात की जाये तो सबसे पहले मतदान को मूल कर्तव्यों में शामिल किया जाए। भले ही कर्त्तव्यों का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य नहीं होता लेकिन फिर भी कर्तव्य एक नैतिक दबाव तो डालते ही हैं। ऐसी ही अनुशंसा 2000 में गठित संविधान समीक्षा आयोग ने भी की थी। 
आर्थिक उदारीकरण के बाद में उच्च/मध्यम वर्ग के आकार में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है जिसकी चुनाव में निर्णायक भूमिका हो सकती है और है भी। ऐसा इसलिए कि एक यह वर्ग तो संख्या के हिसाब से और दूसरा ये वर्ग शिक्षित/जागरूक होने के कारण धर्म या जाति जैसे संकीर्ण मुद्दों से हटकर वोट कर सकता है। लेकिन अभी यह (उच्च/मध्यम) वर्ग दो कारणों से वोट डालने नहीं जाता-एक, वह सोचता है कि उसके पास पर्याप्त संसाधन है और सरकार के कार्यों का उसके जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं है, चुनाव लड़ने वाले से उसका सीधा संबंध नहीं है। फिर क्यों 'झंझट' में पड़ा जाए.!! दूसरा, जैसे-तैसे अगर वह पांच वर्षों में वोट डालने की हिम्मत भी करे तो चुनाव में उतरे प्रत्याशियों की 'आपराधिक पृष्ठभूमि' देखकर वह हताश-निराश होकर घर से नहीं निकलता।

भारतीय लोकतंत्र में चुनावी मुद्दे-आलोचना का कारण
मतदान न करने की इस समस्या से निपटने में (दिल्ली बलात्कार के मामले में गठित) न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की वह सिफारिश महत्वपूर्ण हो सकती है जिसमें उन्होंने जन प्रतिनिधि कानून-1951 में अबिलम्ब संसोधन करते हुए प्रथम दृष्टया दोषी पाए गए (सेशन/जिला न्यालय में) व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराये जाने की बात की है, उच्च/सर्वोच्च न्यायलय में अंतिम अपील का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करना स्वच्छ लोगों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित  करेगा। दूसरे, अब अगर चुनाव लड़ने वाले सही हों तो जनता का ये कर्तव्य बनता है कि वो हर हालत में मतदान करे। इसके लिए मतदान के सभी संभव माध्यमो का उपयोग हो-पारंपरिक जैसे ईवीएम से मतदान, संचार के आधुनिक माध्यमों का प्रयोग करते हुए इन्टरनेट या एसएमएस से, डाक से मतदान करना संभव बनाया जाए। लेकिन मतदान प्रतिशत अधिक करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। दुनिया में लोकतंत्र का सफल उदहारण माने जाने वाले अमेरिका में मतदान  करने के कई विकल्प होते हैं लेकिन फिर भी वहां 1972 के राष्ट्रपति चुनावों से किसी भी बार मतदान प्रतिशत 56-57 से अधिक नहीं रहा है, इस बार ये 57.1 प्रतिशत रहा। जो निश्चित ही अच्छा नहीं कहा जा सकता। भारत के हालात भी सही नहीं कहे जा सकते। यह 2009 लोकसभा चुनावों में 59.7% रहा। लोकसभा के लिए भारत में मतदान का अधिकतम प्रतिशत 1984 के चुनावों में 63.56 रहा था। अब प्रश्न उठता है- फिर क्या किया जाए?

हार नहीं, रार नई ठाननी होगी
इसके जबाव के लिए हमें थोडा कठोर होने की जरूरत है। मसलन लोकतंत्र  दो या दो से अधिक विकल्पों में से किसी एक सर्वश्रेष्ठ को चुनने की आज़ादी देता है और अगर आपको उन विकल्पों में कोई भी उपयुक्त नहीं है तो 'सभी को नकारने" का विकल्प भी होना चाहिए। (सभी को नकारने का विकल्प ईवीएम में नहीं है लेकिन पीठाशीन अधिकारी से चुनाव नियम सहिंता-1961 के नियम 49-O के तहत कोई मतदाता फॉर्म भर कर ऐसा कर सकता है). अब यहां कोई ऐसा विकल्प नहीं है जिसकी संभावना बनती हो। इतना होने के बाद भी अगर कोई लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी कर अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकता तो राज्य को ये शक्ति होनी चाहिए वो ऐसा करने वालों को कुछ सार्वजनिक सेवाओं से वंचित कर सके। जैसे उसे सब्सिडी का लाभ न दिया जाए। यह पेट्रोलियम या सार्वजनिक वितरण से संबंधित हो सकती है। हालांकि ये विकल्प थोड़े मुश्किल लग सकते हैं और ये व्यवहार्यता की कसौटी पर असहज भी हो सकते हैं लेकिन ऐसे ही अन्य संभावित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है।
'लोक' भागीदारी हो तो 'तंत्र' में परिवर्तन संभव है
लोकतंत्र की सफलता के लिए सिर्फ जनता के जागरूक होने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं की जागरूकता महत्व पूर्ण नहीं है लेकिन इसके लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ता है। अगर इंतज़ार किया गया तो चीजें और बिगड़ सकती हैं। कहीं ऐसा न तो कि तब तक लोकतंत्र बहुबल या धनबल की कठपुतली बन जाए। हमें हर हाल में लोकतंत्र के इन मंदिरों को पवित्र रखना है। 'संस्थागत पवित्रता' {Institutional Integrity- Hon,ble SC In PJ Thomas Case} सुनिश्चित करने के लिए सुधारों की ज़िम्मेदारी संसद और विधानसभाओं में बैठने वाले हमारे प्रतिनिधियों की तो है ही, लेकिन जनता भी अपने को कर्तव्यों से मुक्त नहीं कर सकती आखिर जो सुधार हम देखना लाना चाहते हैं उसकी शुरुआत हमसे ही होनी चाहिए। लोकतंत्र के मूल में तो जनता ही है।
Copied from :- http://amitantarnaad.blogspot.in/2013/07/blog-post.html

No comments:

Post a Comment