Tuesday, January 8, 2013

पुरुष-प्रधान समाज और नारी-आन्दोलन

दोस्तों,

दिल्ली की हृदय-विकारक सामूहिक बलात्कार की अमानवीय घटना के सन्दर्भ में एक मुद्दा जो आजकल चर्चा में है वो है महिलायों का मीडिया में "यौन-वस्तु" और “भोग्या” के तौर पर प्रस्तुतीकरण.....

अलग अलग टीवी चैनल पर अलग अलग राजनितिक दलों के नेता, महिला संगठन, समाज शाश्त्री, महिला वकील, लेखक, शिक्षक, विचारक इत्यादि लोग इस विषय पर अपने विचार रख चुके हैं- कुछ लोग भारतीय संस्कृति का हवाला देते हुए महिलायों को शालीन वस्त्र डालने की सलाह दे रहे हैं तो दूसरी तरफ नारीवादी आन्दोलन की अगुवाई कर रहे समाज शाश्त्री इसे बेतुका बता कर कह रहे है की महिलायों के कम कपडे डालने से किसी को क्या मतलब है और उनके अनुसार ये मुद्दा नारी स्वतंत्रता का है...

इस मुद्दे पर थोड़ी चर्चा जरुरी है पर उससे पहले दो बातें पहले ही साफ़ कर दूँ-

पहली बात ये की छोटी –छोटी मासूम बच्चियों , वृद्ध महिलायों, पूरे कपडे पहनी हुई महिलायों को भी दरिन्दे अपना शिकार बनाने से नहीं चुकते जिससे ये सिद्ध हो जाता है की कम कपडे ही बलात्कार का कारण नहीं है..

दूसरी बात- कोई भी महिला किस किस्म के कपडे डालती है ये उसका निजी चुनाव है और उसकी स्वतंत्रता का सम्मान होना भी चाहिए...वो सडक पर जाते हुए, सिनेमा हाल में, पार्टी में , मोहल्ले में , कार्य स्थल पर किस किस्म के कपडे पहनती है ये उसका अधिकार है और उसपर किसी को आपति नहीं होनी चाहिए....

एक मुद्दा जिस पर कोई भी खुल कर चर्चा नहीं करना चाहता है वो ये है की नारी को बाजारवाद की चीज़ बता कर उसे एक उत्पाद के रूप में परोसने का कोई भी महिला संगठन या नारीवादी समाज शाश्त्री विचारक विरोध क्यों नहीं करता है ?

क्यों मर्दों के अंडर वियर को बेचने के लिए अर्धनग्न औरत चाहिये ?

क्यों मकान बनाने वाले सीमेंट को बेचने के लिए लगभग नंगी अवस्था में औरत का समुद्र में नहा कर निकलना जरुरी है ?

क्यों पसीने की बदबू दूर करने वाले Deodorant को बेचने के लिए औरत को बेहूदा और फूहड़ तरीके से अधनंगा करना और उसका कामुक, उत्तेजक भाव-भंगिमाएं बनाना जरुरी है ?

क्यों कार, मोटरसाइकिल, मोबाइल, साबुन या यूँ कहें की लगभग हर दुसरे विज्ञापन में नग्न नारी देह को समाज की ललचाती हुई नज़रों के सामने परोसा जाता है ?

क्यों नारी खुद को एक भोग की वस्तु के तौर पर परोसने के लिए तैयार है ?
जो भी महिलाएं इन विज्ञापनों में काम करती हैं क्या कभी उन्होंने सोचा है की जिस गंदे तरीके से उनको परदे पर दिखाया जा रहा है वो कितना उचित है ?

कभी सोचा है उन्होंने की किसी भी उत्पाद बेचने के लिए जो रोल उन्हें करना होता है क्या वो कहीं से भी उनकी मानवीय भावनाओं या संवेदनायों या बुद्धि, गुण या फिर अदाकारी को दिखाता भी है ? क्या कभी सोचा है की इस नंगेपन का कोई भी औचित्य उस कम्पनी के उत्पाद से है भी या नहीं ?

किस मजबूरी के तहत कुछ महिलाएं सिर्फ और सिर्फ अपने बेवजह के फूहड़ देह-प्रदर्शन करके पूरे औरत समाज को सिर्फ एक घूरने, चटखारे लेने, भोगने और सिर्फ इस्तेमाल करने के तौर पर दर्शा सकती है ? क्या सिर्फ एक यौन-वस्तु के तौर पर खुद को पर्दर्शित करना पूरे महिला-समाज का अपमान नहीं है ?

क्या खेल, विज्ञानं, राजनीती, कला, वाणिज्य, व्यापर, चिकित्सा और ना जाने कितनी जगहों पर महिलायों ने अपना परचम नहीं लहराया है और समाज को नयी दिशा नहीं दी है ? तो फिर क्यों नारी गुणों के बदले अपने शरीर को हथियार बना कर रातों-रात एकदम से पैसा और शोहरत बटोरना चाहती हैं इन अश्लील विज्ञापनों के माध्यम से ?

क्यों नहीं आवाज़ उठाई जाती महिला संगठनों के द्वारा की महिलायों का आधुनिकता के नाम पर इस तरह से देह-शोषण गलत है ? क्यों नहीं ये संगठन आवाज़ उठाते की इस बेवजह और गैरवाजिब नंगेपन से नारी की अस्मिता और गरिमा का बलात्कार सरे-आम पूरी दुनिया के सामने हो रहा है हर वक़्त, पूरे दिन और पूरी रात ?

कहीं तो इस बेवजह के घिनोने नंगेपन पर लगाम लगनी चाहिए की नहीं ?

कहीं ऐसा तो नहीं की एक तरफ पुरुष-प्रधान समाज के घिनोने अत्याचार और दूसरी तरफ भोंडे, विकृत विज्ञापनों में “ यौन-वास्तु और भोग्या” बनने की जद्दोजहद में नारी कभी स्वतंत्र ही ना हो पाए.....

इस पूरे प्रकरण में अब इस बात का जवाब तो ढूँढना ही होगा की ये पुरुष-प्रधान समाज और नारी-आन्दोलन इस देश में औरत को उसकी असली पहचान और असली स्वतंत्रता कब देगा?

डॉ राजेश गर्ग.
garg50@rediffmail.com

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