Wednesday, July 31, 2013

मीडिया सदैव ही सकारात्मक रुख अपनाने से कतराता रहा है

मानो भारत की छवि को विश्वपटल पर धूमिल करने के लिए नेता उन्हें ना-उम्मीद कर बैठे, तो भारतीय मीडिया स्वम सीधे उनका प्रतिस्पर्धि बन राष्ट्र को अपमानित करने लगा है.

भारत में लोकतंत्र की जडें और मज़बूत करने के लिए मीडिया सदैव ही सकारात्मक रुख अपनाने से कतराता रहा है.
भारतीय पत्रकारिता आजकल एक ऐसा व्यापार बन चुका है जिसका तानाबाना फ़िल्मी दुनिया के काल्पनिक संसार के अथवा माननीय व्यक्तियों के निजी जीवन को खंगालने या फिर क्रिकेट के तथाकथित देवताओं के इर्द्गिर्द ही बुना जाता है. विशेषरूप से trained ये पत्रकार मसालेसार कहानियाँ गढ़ते रहते हैं जिसे आम-आदमी अपने दुःख दर्द को भूलने के लिए पढना भी चाहता है.

कोई आश्चर्य नहीं कि भारतीय मीडिया को अब एक विशिष्ट गौरव हासिल है जिससे विश्व के लोग इसे अहंकारी, पक्षपाती, सनसनी फ़ैलाने वाला या मतप्रचारक के रूप में जानने लगे हैं। भ्रष्टों के साथ कूल्हों से जुडा हमारा मीडिया उनके हर अनुचित कार्य में बराबर का भागीदार है इसीलिए अपने राजनैतिक मालिकों के सौदों के लिए भूमिका बनाने हेतु तत्परता से प्रचाररत भी रहता है.

लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को लोकतंत्र के सेवा करते हुए, बिना किसी पक्षपात या किसी गोपनीय कार्यक्रम में लिप्त हुए, सिर्फ सच और सच्चाई का ही साथ देते हुए, गर्व से सीना तान खड़ा होना चाहिए। वहीँ देखा ये गया है कि हमें कोई शायद ही कभी कोई ऐसा पत्रकार देखने को मिलता है जो सही दिमाग सही सोच रखता है। अयोग्य व गुणरहित पत्रकार शक्ति के केन्द्रों के नज़दीक आने के लिए नए से नए अवसरों को एक दुसरे से छीनने में लगे हैं, वर्ना कोई बताये कि क्या कारण हो सकता है कि सन 2006 में 512 पत्रकारों को उन अभागे 1520 कपास के किसानों के मृत शरीरों को लाँघ मात्र एक फैशन सप्ताह का विस्तृत प्रसारण करने के लिए भेजा जाता हैं जिन्होंने सरकारी नीतियों के चलते घोर गरीबी में आत्महत्याएं कीं और अपने परिवारों को अकेला मरने के लिए पीछे छोड़ दिया जिसे किसी मुख्यधारा मीडिया में पूर्णरूपेण प्रसारित नहीं किया गया था?

इन घटिया नेताओं से नज़दीकियां बनाने में मीडिया इतना नीचे गिर गया है कि सत्ता के कोठों के पिछवाड़े उनके पालतू जानवरों के साथ अठखेलियाँ करता कुलांचें भरता सा नज़र आता है ( राजीव शुक्ला, दीपक चौरसिया)।

TV रिपोर्टर्स का हाल सबसे बुरा है। शुरुआत तो करते है चर्चा-परिचर्चा या बहस के दिखावे के साथ जो की मेहमान सदस्यों के बीच अपेक्षित होती है, मज़ा तब आता है जब आयोजन करता स्वम मेहमानों का तिरस्कार करते हुए चीखने का उपक्रम शुरू कर देता है(अरनब). बहस के दौरान बेइन्तहा बकवास करके ये वाचाल टीवी शो प्रेजेंटेर्स अपने मेहमान सदस्यों को बोलने या अपना तर्क प्रस्तुत का कोई अवसर ही नहीं उठाते।
नम्रता…शिष्टचार… सभ्याचार…क्या मज़ाक कर रहे हो दोस्त? बिलकुल नहीं! इनको इन सब की कोई परवाह नहीं… ये बातें अनजानी बातें हैं…महज़ किसी भी पाठ्यक्रम से बाहरी बातें…और इनके लिए सदैव ये ऐसी ही रहेंगी।कहते हैं कि आप सभी को थोड़े समय के लिए बेवक़ूफ़ बना सकते हैं या थोड़े लोगो को बहुत समय तक, परन्तु सभी लोगों को सारे समय बेवक़ूफ़ नहीं बना सक्ते. अब भी समय है कि मीडिया अपने वास्तविक मूल्य की पहचान करे और असली भारत के साथ जुड़ने का प्रयास करे और इसकी तकलीफों और समस्यायों को नयी आवाज़ दे… ठीक 'आप' का दिखाई राह पर चलते हुये।

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