Saturday, June 1, 2013

बाज़ार लगी नहीं ..लुटेरे आ गए

 बाज़ार लगी नहीं ..लुटेरे आ गए
नज़र गडाये ..जब खराब में से,... अच्छी आलू ढूंढ रहे थे ..तभी सब्जी वाले के बडबडाने की आवाज़ आयी ..."बाज़ार लगी नहीं ..लुटेरे आ गए "....अजीब लगा ..पूंछा भाई अभी ..अच्छे को भी छाटना ..लूटना हो गया क्या ....

उसने पीछे इशारा किया ....मुड कर देखा तो ...जी हाँ,.. वही थे ..हमारे और आपके रक्षक ....
खैर आलू चुन,.. घर चला आया ..रास्ते में सोंचा ...की जब हम 20 रूपये ...की आलू को इतना छांट कर ..चुनते है ..तो वो जिनको ..इतना सारा टैक्स देते है ....उनको क्यों नहीं छाटते ...

फिर ख़याल आया ...की आज टमाटर क्यों नहीं ला पाया ?....
तो याद आया ...की ठेले पर सारे के सारे ..टमाटर ख़राब ही थे ...छाटने की कोशिश तो की थी .....पर क्या करता सारे बेकार थे ....तो नहीं लिया, खाली हाँथ ही आ गया .....कल जाऊँगा ..किसी और दूकान को try करूँगा ...पर खराब टमाटर से तो ..अच्छा है ..एक दिन खाली आलू ...स्वाद नहीं आएगा ..पर पेट तो नहीं ख़राब होगा ...

फिर ख्याल आया ..की वोट देते समय .... तो कोई ..ऐसा option होता ही नहीं ....की,.. नहीं लेना .....
चुन पाओ ..तो चुन पाओ ..नहीं तो कल फिर ...try करो ...
मजबूर करो ..ठेलेवाले को....की भाई ..कुछ अच्छे भी रख लिया कर ...टमाटर ....
क्यों भाई ...right to reject तो होना ही चाहिए ...ये बंधन क्यों .....की इसी ठेले से खरीदने है ..और खरीदने ही है टमाटर आज ...
चाहे हर ठेले वाले ने ..सड़े ही रख्खे हों आपके सामने ....

फिर ख़याल आया ..की चलो ..परवल ले लेते है ...आज आलू - परवल ....वापस बाज़ार में ...वाह क्या बढ़िया परवल है ..एक दम हरी ...
पर ये क्या ..झोली में डालते हुए ..हाँथ भी हरे ...अरे ये तो रंगी है ...अब दुकानदार से पूँछ बैठा ....ये रंगी है...
वो बोला नहीं ..मैंने कहा हाँ ..
अब ..उसने बुला लिए 2/3 ..आस पास के ..की बताओ ..ये रंगी है कहीं ?...इनको शक हो रहा है ...
सबने मिलकर सरकार बना ली ....और दे दी ..clean chit ...नहीं सब ठीक है ...यही सही है ...
तो मैं भी नहीं लूँगा ..मेरी मर्जी है ..पैसा मेरा है ...किसी और दूकान से लूँगा ..पर ये क्या ...
कोई ऐसी दूकान है ही नहीं ...जहाँ एक क्लीन चिट ..देने वालों की जमात ना हो ....

हद है ..पूरी बाज़ार ही ...मिल झूल कर ...बाँट रही है क्लीन चिट ..और झोंक रही है ...आँख में धूल ...
पर आम आदमी ...या तो खाओ ..या ना खाओ ..मर्जी तुम्हारी ..पर मिलेगा वही ..जो बिकेगा ...या बेचा जायेगा ...
अब पैसा मेरा ....पर कहाँ रही ..मर्जी मेरी ..इससे लो ..या फिर उससे ...परवल तो रंगी ..की रंगी ....

और क्लीन चिट ..हर दूकान पर टंगी ....
सोंचा पुलिस वाले से पूँछ लूँ ....की क्या सच ....पर याद आया ...ठेलेवाले ने ...तो पहले ही ...सिर्फ बुदबुदाया था .....की "बाज़ार लगी नहीं ...और लूटने वाले आ गये"....और उसके बाद ....ख़ुशी से लुटा था ..ठेलेवाला ...क्यों ?.....

क्योंकि कोई ठेलेवाले की ...क्लीन चिट ..को उतार ना सके ...

लुटा तो मैं ...लुटा तो ....आम आदमी ..और लूटा भी ..आम आदमी को ही ....आम आदमी ने ....पर ....
सोंच रहा था ..मैं क्यों लुटा ?....किसने लूटा? ..मैंने तो पूरा दिमाग लगाया था ..की ना लुटू ..पर लुटा .....
चाह कर भी नहीं ...बच पाया ..लुटने से ....

क्यों ?..क्योंकि ..मुझे ..किसी व्यक्ति ने नहीं ...इस व्यवस्था ने लूटा है ....शिकायत किससे करें ...जब व्यवस्था ही लूट रही है ...इसको बिना ..बदले ..
ना टमाटर सही मिलेगा .....और ना ही बिना रंगी परवल ...दिमाग चाहे जितना लगा लो .....नागेन्द्र शुक्ल .


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