Friday, May 3, 2013

जो मजबूर ...वही मजदूर ......मजदूर ....


जो मजबूर ...वही मजदूर ......मजदूर ....

देश की नैया को ये खेता हमारे देश में
हर बशर इसका लहू पीता हमारे देश में।

तन से लिपटा चीथड़ा है पेट से पत्थर बंधा,
इस तरहा मजदूर जीता है हमारे देश में।

इसका है अजन्ता, और ऐलोरा इस की है,
फिर भी ये फुटपाथ पर सोता हमारे देश में।

चाहे हंसी-मजाक में ही कहा जाता है कि मजदूर यानी मजे से दूर, पर बात बिलकुल सही है ......

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिसको मई दिवस के नाम से जाना जाता है, इसकी शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो।

ऐसा हुआ क्या ?.....

मई माह का पहला पूरा दिन सिर्फ मजदूरों की चर्चा के लिए नियत है।
ऐसा नहीं है कि इस एक दिन मजदूरों को बिना काम किए पगार मिलेगी या अधिक मिलेगी।
जब उतनी मिलने की भी गारंटी नहीं है जितने पर अंगूठा लगवाया जाता है तो
अधिक की सोचना ही बेमानी है। कारण इसमें सब तरफ बेईमानी ही पसरी हुई है।

इस दिन मजदूर को खाने का समय एक घंटे के बजाय दो घंटे भी नहीं दिया जाएगा और न शाम को ही एक घंटे पहले छुट्टी दी जाएगी। वो बात दीगर है कि वो बीड़ी फूंकने या चाय सुड़कने के बहाने कुछ पल यूं ही गुजार ले। ऐसा करने से भी मजदूर दिवस पर कोई आंच नहीं आती है। मजदूर दिवस पर ही क्‍यों, हर दिन मजदूर बेबस है। आज खास इसलिए है क्‍योंकि उसके बारे में खुली चर्चा हो रही है।..........नागेन्द्र शुक्ल
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