Thursday, January 16, 2014

“नेताओं” और "प्रसिद्ध लोगों" का जो दिल्ली की जीत के बाद “आप” में शामिल हुए....

आज मुद्दा उन “नेताओं” और "प्रसिद्ध लोगों" का जो दिल्ली की जीत के बाद “आप” में शामिल हुए....

इतिहास गवाह है कि किसी नए विचार, किसी नए आन्दोलन, किसी नए विकल्प को लाने वाले लोग वाकई बड़े हिम्मती और विरले होते हैं...बहुत हिम्मत चाहिए होती है धारा के विपरीत चलने और बहने के लिए...स्वामी विवेकानंद ने एक जगह कहा है कि धारा के साथ तो मुर्दे भी बह जाया करते करते हैं, असली पौरुषत्व तो धारा के विपरीत बहने में है......

अरविन्द और साथिओं ने एक नयी विचारधारा बताई और एक नए समृद्ध, सुरक्षित, समान, सम्मानित, खुशहाल, भारत का सपना पूरा करने का रास्ता बताया..बहुत से लोग जो तब तक राजनीती के नाम से भी चिढ खाते थे और अपना वोट तक नहीं डालते थे, इस नयी विचारधारा से प्रभावित हुए.....फेस बुक पर केवल गप्प मारने, चैट करने वाली "यो-यो " वाली पीढ़ी अब राजनीती को सुधारने की बात करने लगी..

"आप" के आने के बाद अब क्रिकेट के ज्यादा मज़ा नेताओं के भाषण में आने लगा था लोगों को....अब गली मोहल्लों में लोग इस नए आन्दोलन को उत्सुकता भरी नज़रों से जवान होते देख रहे थे..रोज़-रोज़ नए खुलासे, रोज़-रोज़ बड़े बड़े नेताओं के चेहरे से नकाब उतरने शुरू हो चुके थे...अन्याय के खिलाफ, बलात्कार के खिलाफ, लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग सड़कों पर आ चुके थे....

पर इस पूरी मुहीम में वो कौन लोग थे जो सड़कों पर भूखे-प्यासे पुलिस की लाठियां खा रहे थे ??

वो कौन लोग थे जो हाड़ - कंपाती ठण्ड में पानी की तेज़ बौछारें सह रहे थे ?

वो कौन थे जिनके खिलाफ पुलिस झूठे मुक़दमे दायर कर उन्हें डरा और परेशान कर रही थी क्योंकि वो सच के साथ खड़े होकर इस सड़ चुकी आत्याचारी व्यवस्था को ललकारने की हिम्मत कर रहे थे ?

वो कौन थे जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के रात-रात भर जाग कर इस मुहीम और “आप” को पूरे सोशल मीडिया का बेताज़ बादशाह बना डाला जिसके लिय बीजेपी/ कांग्रेस की पैसे लेकर काम करने वाली मशीनरी केवल सोच कर मन-मसोस कर रह जाती थी ?

वो कौन लोग थे जिन्होंने अपनी नौकरी, घर-बार, पढाई छोड़कर दिल्ली में डेरा जमा लिया और घर घर जाकर “आप” का प्रचार किया ? जिन्होंने ऑटो के पीछे पोस्टर चिपकाए, मेनिफेस्टो मीटिंग की, जन-सभाएं की, पुलिस थानों में जाकर लाचारों की मदद की, रात –रात भर जाग कर पर्चे बांटे, पोस्टर चिपकाए ?

वो कौन लोग थे जिन्होंने अपने दोस्तों, घर वालों और रिश्तेदारों से सिर्फ “आप” के लिए दूरियां बना ली ?

वो कौन लोग थे जिन्होंने हाथों में झाड़ू थाम कर गलियां साफ़ की, गरीबों की झोंपडियो में जाकर उन्हें बताया कि स्वराज क्या बला है और उन्हें बताया कि ये व्यवस्था बदली जा सकती है और कैसे एक एक वोट इस सड़ी गली व्यवस्था को बदलने को जरुरी है ?

वो कौन लोग थे जिन्होंने दिन रात बैठकर लोगों के वोटर कार्ड बनवाने में मदद की और फर्जी वोटों का पता लगा कर उन्हें निरस्त करवाया ?

वो कौन लोग थे जिन्होंने अपनी खून-पसीने की कमाई -- एक एक रूपए--को इस महा-यज्ञ में आहुति के तौर पर डाला ?

वो कौन लोग थे जो गर्मी, सर्दी, धूप, बरसात, आँधी-तूफ़ान की परवाह किये बगैर पैदल चलते गए और अनजान रास्तों, अनजान मोहल्लों और अनजान लोगों के बीच जाकर “आप” का प्रचार करते रहे- कौन थे वो गुमनाम से चेहरे ?????

आखिर थे तो कौन थे वो लोग ?????????????????????

जी हाँ !! ये वो लोग थे जिसे इस मुल्क का “आम आदमी” कहा जाता है..जो दुखी था, अपमानित था, हताश था, पीड़ित था, परेशान था इस मौजूदा व्यवस्था से.....जो हमेशा कुछ कर गुजरने की बात तो करता था, जिसका दिल इस मुल्क की तस्वीर को बदलने के लिए तडपता तो था और जैसे ही उसे उम्मीद की एक छोटी सी किरण दिखी “आप” में तो वो "आम आदमी" दौड़ा चला आया, वो भागा चला आया--- बदहवास सा, अपना सब कुछ दांव पर लगा कर, अपनी पुरानी विचारधारा और पार्टी प्रतिबद्धता को त्यागकर, बिना किसी स्वार्थ के आगे बढ़ आया वो “आम आदमी”......

और जब दिल्ली में उस “आम आदमी” ने अपनी जीत का परचम लहराया तो पूरी दुनिया सन्न रह गयी....”आम आदमी” की ताक़त ने सत्ता के सारे समीकरण एक झटके में बदल डाले...पर ठीक उसी समय........

जी हाँ, ठीक उसी समय आम आदमी की पार्टी में कुछ “ख़ास” लोगों ने दस्तक देनी शुरू की..

वो लोग जो अब तक “आप” को अभी तक गरियाते थे, जो “आप” की विचारधारा को “अव्यवहारिक” बताते नहीं थकते थे, जो पूरी शिद्दत के साथ “आप” को सड़कछाप, लड़के-लपाटों की पार्टी कहते थे, जो इसकी सफलता को सिरे से खारिज़ कर देते थे, एक –दो सीट जीत लेने की बात पर कटाक्ष करते और हँसते थे.....

और इनके साथ-साथ अब वो लोग भी "आप" की बहती गंगा में हाथ धोने को तत्पर हो गए जो सिर्फ दूर रहकर “आप” को आन्दोलन करते, मेहनत करते, पसीना बहाते, घर-घर भटकते देखते थे..बस देखते ही थे पर कुछ बोलते नहीं थे, कुछ करते नहीं थे, कोई हौसला नहीं देते थे, खुद आगे नहीं आते थे---- खुश थे वो अपनी ऐशो-आराम की दुनिया में ये कहते हुए कि अब इस मुल्क का कुछ नहीं हो सकता.....

और अगर किसी का साथ था "आप" के साथ इस पूरे आन्दोलन में तो वो साथ था इस आवाम के आम आदमी का---अनजाना और अपरिचित "आम आदमी" का....

कहते हैं ना कि असफलता अकेले अनाथ बन कर रोती है और सफलता के हज़ार बाप होते हैं....अब दिल्ली की जीत के बाद “आप” की सफलता के भी हज़ार बाप पैदा हो गए हैं.....ये “खास” लोग अब “आम बनने या यूँ कहिये कि “आम” दिखने की चाह में “आप” के पास आये और मज़ा देखिये कि “आप” ने भी इन्हें इस तरह गले लगाया कि जैसे इस पूरी जंग के सबसे बड़े सिपहसालार यही लोग रहे हों !!!!!

बीजेपी, कांग्रेस, सपा और दूसरी पार्टिओं से टिकट ना पाने वले नेता अब “आम आदमी” बन रहे हैं...अब लेखक, पत्रकार, उद्योगपति, बड़ी-बड़ी कंपनियों के अरबोंपति अधिकारी, खिलाडी, अभिनेता, कवि, कलाकार और ना जाने कौन कौन सी प्रजातिओं के “खास” लोगों के लिए “आप” अपने भविष्य की राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने का जरिया बन गयी लगती है......

ये वो लोग थे जो अपने अपने क्षेत्र में इतनी दौलत और नाम कमा चुके थे कि अब इन्हें अपने और अपने परिवार के जीवन-यापन की कोई चिंता नहीं थी-----अपना पुराना धंधा छोड़कर ये बड़े आराम से अब राजनीती की नयी पारी खेलने को तैयार हैं....

अब ये “ख़ास” से “आम” बने लोग “आप” के नेता हैं आजकल.....दो दिन हुए नहीं होते “आम आदमी” की टोपी डाले और टीवी पर इनके “एक्सपर्ट कमेंट” शुरू हो जाते हैं----“आप” ने ये क्यों किया, ये क्यों नहीं किया, इसे ऐसे करते तो अच्छा होता, तुम्हे ऐसा करना नहीं आता और आखिरी में- तुम ऐसा कैसे कर सकते हो ???????????????

क्या अब आम समर्थकों और कार्यकर्ताओं को इन “खास” लोगों को अपना नेता मानना पड़ेगा ? क्या टीना शर्मा और अलका लाम्बा जैसे लोगों को हमें अपना आदर्श मानना पड़ेगा ? कहाँ था मिल्खा सिंह जी का परिवार और कहाँ थे कैप्टन गोपीनाथ, शास्त्री जी के प्रपोत्र, मल्लिका साराभाई, बालाकृष्ण और अलका लाम्बा जैसे लोग जब “आप” के समर्थक पुलिस की लाठियां और पानी की बौछारें खाकर “आम आदमी” के हक की लड़ाई लड़ रहे थे ?

क्या अब वो लोग “आप” का भविष्य तय करेंगे जो इस संघर्ष के या तो विरोध में थे या मूक-दर्शक थे ? जो लोग अब “आप” को रास्ता दिखायेंगे जिन्होंने कभी गलियों की धूल नही फांकी, जिन्होंने कभी ऑटो के पीछे पोस्टर नहीं लगाया, कभी जन-सभा नहीं की, कभी पुलिस की लाठियां नहीं खाई, कभी ठोकरें नहीं खाई खाकी वर्दी की.....जिन्होंने कभी इस नए विचार को समझा और अपनाया ही नही, कभी हौसला-अफजाई नहीं की...

और जब इन्हें “आप” में टिकट नहीं मिलेगा या इनकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होगी तो वो चार दिनों में ही अपना असली रंग दिखाना शुरू कर देंगे और इनमे से कुछ ऐसा कर भी रहे हैं.....

हमारा ये कहना नहीं है कि अब “आप” में किसी नए व्यक्ति को आने नहीं दिया जाये....पर इन नए लोगों को सिर पर नहीं बैठाया जाना चाहिए...इन्हें बेवजह की पब्लिसिटी नहीं मिलनी चाहिये.....

दिल्ली की जीत के बाद “आप” में आने वाले लोगों के लिए एक नीति बनानी ही होगी जिसमे स्पष्ट किया जाये कि ऐसे लोगों को पार्टी में आने के दो साल तक किसी भी स्तर पर कोई पद नहीं दिया जायेगा....और साथ ही साथ ये नीति भी कि इन्हें अगले पांच साल तक “आप” की तरफ से किसी भी स्तर पर कोई टिकट नहीं दिया जायेगा.....

"आप" को अब गंगोत्री बन कर दूसरी पार्टी के नेताओं के पाप धोने की कोई जरुरत नहीं है.......अब "ख़ास" लोगों को पहले "आम आदमी" बन कर रहना ही पड़ेगा ताकि तब कहीं जाकर उन्हें इस जनक्रांति की जिम्मेदारी दी जा सके...

इन नए “नेताओं” को जरा कम से कम दो साल तक आम कार्यकर्ता की तरह घर-घर झाड़ू उठाकर काम करने दिया जाये ताकि इस “शुद्धीकरण प्रक्रिया” से इनका राजनैतिक शुद्धिकरण किया जा सके...

इस आन्दोलन को आम आदमी ने आगे बढ़कर अपने बल बूते पर लड़ा और जीता है....दिल्ली की जीत के बाद आये लोगों की वजह से “आप” नहीं जीती है....अगर “आप” को अच्छे लोग, अच्छे नेता, नए विचार, नए सुझाव वाले लोग चाहिए तो उसे इस देश की आम जनता से ऐसे हजारों हीरे मिल सकते हैं बस थोडा मेहनत करके उन्हें तलाशने और तराशने की जरुरत है..

ये आन्दोलन पूरे मुल्क की आशाओं का प्रतिबिम्ब है और इस सपने को हम यूँ ही टूटने नहीं दे सकते चाहे इसके लिए हमें कोई भी कुर्बानी क्यों ना देनी पड़े........

इसी कड़ी में अब वक़्त आ गया है कि इस निर्णायक मोड़ पर पार्टी जल्द ही इस बेहद महत्वपूर्ण विषय पर ये निर्णय ले क्योंकि ऐसा ना करने से कहीं ऐसा ना हो कि आम आदमी को ये महसूस करे कि—

“आज वो काबिल हुए,
जो कभी काबिल ना थे,
और मंजिले उन को मिली,
जो दौड़ में शामिल ना थे”....

जय हिन्द !! वन्दे मातरम !!

डॉ राजेश गर्ग.

( आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है पर तर्क और संस्कारित भाषा के साथ और बिना इस बात को भूले कि हम आज भी "जिन्दा" लोग हैं जो "आप" की भलाई और उन्नाति के लिए सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखते हैं ).

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