Tuesday, January 2, 2018

आप के एक - सबसे शुरुवाती साथी ,..

दोस्तों,

बहुत महीनों से "आप" के बारे में कुछ लिखा नहीं, कोई स्व -विचार नहीं रखे. सिर्फ राजनैतिक और सामाजिक पोस्ट्स को शेयर करता रहा. अब राज्य सभा के लिए "आप" के संभावित उम्मीदवारों के लिए सोशल मीडिया पर जूतमपैजार चालू है. पढ़कर सिर्फ अफ़सोस करने के सिवा
किया भी क्या जा सकता था , सो वही किया.

पर आज देखा कि कोई गुप्ता जी है ,जो एक CA है और दुसरे भी गुप्ता जी है जो पहले कांग्रेस में थेऔर अब "आप" में - इन दोनों का नाम संभावित उम्मीदवारों में आ रहा है. पढ़कर दिल को ठेस लगी. क्या अब "आप" के इतने बुरे दिन आ गए हैं कि सिर्फ ऊँचे पदों पर बैठे लोगों या कांग्रेस से लाये लोगों को अपना नुमाइंदा बनाना पड़ रहा है.

क्या हमारा संघर्ष इसी दिन के लिये था ? क्या सड़कों पर इन्ही कांग्रेसी नेताओं को अपना "नेता" बनाने के लिए उतरे थे ? क्या "आप" को अपनी मेहनत की नेक कमाई का छोटा सा "दान" इसीलिए लाखों लोगों ने दिया कि सत्ता के गलियारों के नजदीक बैठे लोग चापलूसी से सत्ता की मलाई खाएं ?

नहीं, "आप" का सत्ता में आना एक आम आदमी का सत्ता में आना है. वो आम आदमी जो इस भ्रष्ट तंत्र से बुरी तरह हिल चूका था. जिसे इस मुल्क के लिए कोई आशा की किरण नज़र नहीं आती थी. तब अरविन्द, मनीष, संजय, गोपाल राय, योगेन्द्र और प्रशांत जैसे कुछ लोगों ने अन्ना की अगुवाई में जनता की आवाज़ उठाई.

हमारे जैसे लाखों आम लोग इस जूनून का हिस्सा बने, इसे और आगे तक बढाया- किसी ना किसी तरह योगदान देकर- तन से, मन, से, धन से, समय देकर, सड़कों पर प्रचार कर, लाठियां खाकर, नौकरियां खोकर, अपमान सहकर - दिन रात इस सपने को देखा, जिया और हकीक़त बनाने में योगदान दिया.

जब दिल्ली में सत्ता आई, तब कई तथाकथित बुद्धिजीवी अपने अपने ड्राइंग रूम से बहार निकलकर "आप" से जुड़ने लगे- ये वो लोग थे जो अपने अपने काम में सफल, अमीर और प्रसिद्ध थे- पर आन्दोलन के वक़्त बिलकुल चुप थे- अब दिल्ली में सत्ता मिलने पर इन्हें "आप" में रस आने लगा. अब ये अपने नाम और प्रसिद्धी को भुनाते हुए "आप" में शामिल होना शुरू हुए. ये प्रसिद्ध वकील, पत्रकार, उद्योगपति, बैंकर, लेखक आदि थे जो "बहती गंगा में हाथ धो " लेने चाहते थे और इन्होने हाथ धोये भी. अपनी प्रसिद्धी का फायदा उठा ये लोग सरकार के नेताओं के नजदीक आ गए.

पर इस पूरी कयावद में वो आम आदमी कहाँ गुम हो गया जो "कुछ भी नहीं था" ? जो अनजान सा था ? जो इस पूरे आन्दोलन का असली केंद्र था ? जो कुछ ना होते हुए भी पारंपरिक राजनैतिक दलों को चुनौती देने की धुरी था ? वही अनजान चेहरे जिन्होंने अरविन्द के नेतृत्व में सरकार चलाई और जिन्होंने देश को दिखा दिया कि बिना तजुर्बे के भी अच्छी नियत से बेहतरीन तरीके से सरकार चलाई जा सकती है.

तो इतने अनजान "आम" समर्थकों और कार्यकर्ताओं के रहते हुए अब "आप" में प्रसिद्ध चेहरे या राजदरबार के चाटुकारों की जरुरत क्यों आन पड़ी ?

"आप" को आम की बजाये "खास" चेहरे क्यों चाहिए ?

खेल का मज़ा तो तब आये जब आन्दोलन से ही निकले हुए अनजान लोगों में से किसी योग्य "आम आदमी" को राज्य सभा भेजा जाए जो ठोक कर अपनी बात वहां रख सके. जो आम आदमी की बात करे, उसके दुखों की, उसके कष्टों की, उसके रोजमर्रा के मुद्दों की, देशहित ही, जनमानस की बात कर सके- ठीक वैसे ही जैसे अरविन्द करते हैं.

तो क्यों हमें किसी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति की जरुरत है राज्यसभा में भेजने के लिए ? क्या हमारे पास आन्दोलन की नीव रखने वाले और उस आग से निकले सोने जैसे " आम " लोग नहीं मिल सकते क्या ?

अरविन्द जी , जरा सोचिये अगर आप तक बात पहुंचे तो.

डॉ राजेश गर्ग

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