Sunday, December 29, 2013

रामलीला मैदान में मिथ ध्वस्त

दिल्ली के रामलीला मैदान में घूम रहा था। अरविंद केजरीवाल का शपथ ग्रहण चल रहा था। मुझे दो साल पहले का वो दिन याद आ रहा था। अन्ना हजारे अनशन पर बैठे थे। हजारों की भीड़ थी और संसद चल रही थी। कहीं किसी कोने एक स्पंदन दिख रहा था। लेकिन राजनेता और राजनीतिक दल अन्ना हजारे के आंदोलन का मजाक उड़ाने में लगे थे। उनके निशाने पर सबसे ज्यादा थे अरविंद केजरीवाल। और सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा रहा था कि आंदोलन करना आसान है और चुनाव लड़ना मुश्किल। नेतागण ऐसा आभास दे रहे थे मानो चुनाव महामानव ही लड़ सकते हैं। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने चुनाव लड़ा और दिल्ली में 28 सीटें जीतकर ये जता दिया कि सत्ता तंत्र ने जिस चुनाव को महामानवों का खेल बना रखा था दरअसल वो आम आदमी का चुनाव ही है। आम आदमी पार्टी की जीत ने ये साबित कर दिया कि राजनीति आम आदमी भी कर सकता है, सरकार भी बना सकता है। बस मुद्दे को जनता के सपनों से जोड़ने की जरूरत है।
ये वो वक्त था जब कि भ्रष्टाचार से हर आदमी त्रस्त था। छुटकारा पाना चाहता था। किसी को रास्ता सूझ नहीं रहा था। राजनीतिक दलों की दिलचस्पी भ्रष्टाचार से लड़ने में नहीं थी। ये भ्रष्टाचार ही उनको ताकत देता था और उनको आम आदमी से महामानव बनाता था। अरविंद और उनकी टीम ने भ्रष्टाचार से लड़ने का मन बनाया। आंदोलन की शुरुआत हुयी। 30 जनवरी 2011 को रामलीला मैदान में एक रैली हुई। जिस पर लोगों का ध्यान कम गया। बाकी रैलियों की तरह इसको कोई खास तवज्जो नहीं मिली। लेकिन उस दिन मुझे पहली बार लगा था कि एक लड़ाई लड़ी जा सकती है। रामलीला मैंदान में गैरराजनीतिक जमात के कहने पर लोग तो आये थे ही, दिल्ली से बाहर भी कई बड़े शहरों में लोग जुटे। ऐसे में जंतर-मंतर और बाद में रामलीला मैदान पर अन्ना के अनशन के समय लोगों के जुटने से मुझे बहुत ज्यादा हैरानी नहीं हुयी। हालांकि जब जिद्दी सत्ता तंत्र ने लोकपाल कानून बनाने से मना कर दिया तो लगा कि एक बार फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जेपी आंदोलन और वी पी सिंह आंदोलन की तरह अकाल मृत्यु को प्राप्त करेगा। अरविंद की टीम ने भी एक तरह से मान लिया कि आंदोलन से काम नहीं चलेगा। राजनीतिक दल बनाना पड़ेगा। दल बना लोगों ने फिर नाक मुंह सिकोड़ा। लेकिन चमत्कार हो गया। आंदोलन मरा नहीं था। वो नये सिरे से नया रास्ता तलाश रहा था। शनिवार को रामलीला मैदान पर घूमते हुए मैंने आंदोलन को सरकार के रूप में देखा। और वहां जमा लोगों की आंखों में सपना साकार होते देखा। उम्मीद जगी।
ये उम्मीद इस बात का प्रमाण है कि जेपी और वीपी सिंह की तुलना में ये आंदोलन ज्यादा स्थाई है। इसका असर कहीं अधिक कारगर साबित होगा। इसका असर आम आदमी पार्टी की जीत से नहीं पता चलेगा और न ही इसका आंकलन जीत से किया जाना चाहिए। मैंने अन्ना आंदोलन के समय भी कहा था कि आंदोलन की जीत भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून बनने से नहीं होगी। अन्ना आंदोलन की सबसे बड़ी जीत भ्रष्टाचार को एक राष्ट्रीय विमर्श बनाने में थी। अन्ना आंदोलन ने सामाजिक विमर्श को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई लेकिन आम आदमी पार्टी ने सामाजिक विमर्श के तौर के पर बनी जमीन को राजनीतिक विमर्श में तब्दील करने का काम किया। ये एक कदम आगे की भूमिका है। आम आदमी ने सबसे पहले राजनीति के इस मिथ को ध्वस्त किया कि चुनाव सिर्फ पैसे से, बाहुबल से और तिकड़म से लड़ा जाता है। एक साल पहले बने संगठन ने सीमित साधनों में चुनाव में आशातीत सफलता हासिल की। लंबे समय के बाद चुनावों में चना चबैना खाकर प्रचार करने वाले दिखायी दिए। पैसे के दम पर कार्यकर्ताओं की फौज की जगह नई उमर के बच्चों का रेड लाइट पर रुकती कारों में प्रचार करते दिखना और पोस्टर पम्पलेट बाटंना, एक नयी राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत है। ये भारतीय लोकतंत्र में मामूली घटना नहीं है। चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए किसी तरह विधायकों की तोड़फोड़ न करना और सिर्फ अपने मुद्दों पर ही अटल रहना और उसकी जगह जनता के बीच सीधे जाकर सरकार निर्माण में लोगों की भागीदारी की खोज करना एक दूसरे मिथ को ध्वस्त करना था। तकरीबन एक सप्ताह तक दिल्ली के साथ देशभर के लोगों के बीच बहस को जन्म देना चुनाव में एक नया प्रयोग है। वर्ना सरकार निर्माण की कवायद या तो बंद कमरों में होती थी या फिर पंच सितारा होटलों में सूटकेस खोले जाते थे। इस बार विधायकों की खरीदफरोख्त नहीं हुई ये क्या कम बड़ी उपलब्धि है?
फिर आम आदमी ने एक और बड़ी रेखा खींची। उन्होंने साफ कहा कि उनके नेता और मंत्री किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं लेंगे। लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं किया जायेगा। अरविंद खुद मुख्यमंत्री होने के बावजूद मुख्यमंत्री के तौर पर निर्धारित बंगला नहीं लेंगे। फ्लैट में ही रहेंगे। मंत्री भी बंगलों की जगह अपने घरों में निवास करेंगे। शपथ ग्रहण समारोह इस देश में दर्जनों बार खुले में हुये। अरविंद के पहले साहिब सिंह वर्मा ने छत्रसाल स्टेडियम में शपथ ली थी। ऐसे में रामलीला मैदान का समारोह चौकाता नहीं। चौंकाता है मुख्यमंत्री और पूरी कैबिनेट का सरकारी गाड़ियों की जगह मेट्रो में चलना। वर्ना देश में मंत्री, विधायक और सांसद बनने का मतलब है लाल बत्ती, सुरक्षा के तामझाम, ब्लैक कैट कमांडोज, आगे पीछे हूटर बजाती गाड़ियां, ट्रैफिक का रुकना और बड़े बंगले हथियाने के लिये नानाप्रकार की जुगत। कुछ लोग अभी इसको ड्रामा करार दें। लेकिन लोग ये भूल जाते हैं कि चुनाव के लिये प्रत्याशी बनते ही इन तमाम चीजों के मद्देनजर शपथपत्र आम आदमी पार्टी ने दाखिल करा लिया था। मुझे नहीं पता इसके पहले इस तरह की कवायद कभी हुयी थी। आजादी के बाद जरूर आदर्शवाद और सादगी भारतीय राजनीति का एक चेहरा था पर बीते दिनों ये चेहरा धूमिल पड़ता गया और बाद में ये चेहरा ही गायब हो गया। भारतीय राजनीति में सादगी की वापसी पूरी राजनीति और चुनावी बिरादरी को बदलने के लिये मजबूर कर देगी। रामलीला मैदान का संदेश नयी राजनीति का नया आगाज है।

http://khabar.ibnlive.in.com/blogs/16/953.html

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