Sunday, January 18, 2015

BJP नेता किरण बेदी के नाम एक खुला खत........

बीजेपी में शामिल होने के बाद अमित शाह के साथ किरण बेदी
देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी अब भाजपाई हो गई हैं. कैमरों के दुर्लभ फोकस का लुत्फ लेते हुए वह बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बगल में बैठी हैं . दिल्ली को नंबर एक राजधानी बनाने का सपना दिखाते हुए वह राजनीतिक तौर पर कहीं ज्यादा ताकतवर लग रही हैं. उनकी बातें वैसी ही हैं जैसी किसी पार्टी के संभावित सीएम कैंडिडेट की हो सकती हैं. यह देखते हुए और इस पर सोचते हुए मुझे चार साल पुराना एक दृश्य याद आता है. रामलीला मैदान का मंच है. मंच के एक छोर पर खड़ा एक शख्स, जिसका नाम कुमार विश्वास है, माइक थामे हुए एक गीत गा रहा है- 'होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो'. दूसरे छोर से किरण बेदी एक बड़ा सा तिरंगा दोनों हाथों में थामे हुए फहराने लगती हैं. शारीरिक रूप से कमजोर और राजनीतिक तौर पर बलवान हो चुका एक बुजुर्ग, जिसका नाम अन्ना हजारे है, अनशन पर बैठा है. अरविंद केजरीवाल नाम का एक आरटीआई कार्यकर्ता भी उसके साथ है.

यह पूरा दृश्य उस सपने को आपके भीतर स्थापित करने के लिए काफी है, जो अरविंद, अन्ना, कुमार, किरण और यहां मौजूद हजारों लोग देख रहे हैं; कि कुछ तो बदलेगा. बदलेंगे ये लोग, बदलेंगे हम लोग, जो सिर पर कफन बांधकर निकले हैं.
अन्ना के आंदोलन से क्या मिला!
और अब एक ताजा दृश्य. कहानी थोड़ी फिल्मी है. केंद्र में बीजेपी की सरकार है. रालेगण सिद्धि में तनहा बैठे हुए अन्ना अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता का कत्ल होते देख रहे हैं. उनके सहयोगियों की आखिरी किस्त भी उनसे विदा ले चुकी है. आंदोलन से जुड़ी एक पूर्व महिला पत्रकार अपने पुराने सहयोगियों को 'एक्सपोज' करने पर आमादा हैं. 'देशसेवा' के जज्बे से लैस देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी बीजेपी में शामिल हो गई है. इसका श्रेय उन्होंने मई में मिली एक चमत्कारिक प्रेरणा को दिया है. अटकलें हैं कि 'विजय रथ' पर सवार बीजेपी उन्हें देश की राजधानी में होने वाले चुनाव का अघोषित रूप से सबसे बड़ा चेहरा बनाने वाली है. अन्ना के मंच के आगे सेल्फी लेने और आइसक्रीम खाने वाले प्रेमी जोड़ों में से कुछ नाकाम, तो कुछ कामयाब हो गए हैं. लेकिन अन्ना का आंदोलन 15 जनवरी 2015 को एक और बार, दुर्गति को प्राप्त हो गया है.
चार साल में उस सपने के चार टुकड़े हो गए हैं. कोई इसे परंपरागत राजनीति की जीत के प्रतीक के तौर पर भी देख सकता है. हालांकि अरविंद अपनी गलतियों, खामियों और पुराने साथियों के साथ अपने जीवन की संभवत: सबसे अहम लड़ाई लड़ रहा है.
पलटने की ये अदा भी क्या खूब रही!
आदरणीय किरण बेदी जी, यह फ्लैशबैक की तस्वीर इसलिए पेश की, ताकि आपको सनद रहे कि हम स्मृति-लोप, बोले तो अल्झाइमर के शिकार नहीं हैं. क्या करें, जमाना स्क्रीनशॉट का है, कुछ भूलने नहीं देता. दिक्कत इससे नहीं है कि आप बीजेपी में चली गईं. दिक्कत इससे है कि आप कांग्रेस-बीजेपी के खिलाफ लड़ते-लड़ते बीजेपी में चली गईं. यह हार मान लेने का प्रतीक है. यह इस बात का प्रतीक है कि अब तक आपने जो किया, वह गलत था और पारंपरिक रास्ता ही सही रास्ता है. बताने वाले बताते हैं कि बीते जमाने जब मजदूर यूनियनें हड़ताल करती थीं तो यूनियन के नेता को मालिक मैनेजर बना लेते थे. मजदूरों की क्या बिसात जो उस मालिक से सवाल करे जो देश पर राज कर रहा हो. पर यूनियन की पुरानी नेता से कुछ सवाल जरूर हैं हमारे.
1. याद करिए वह ट्वीट जिसमें आपने लिखा था कि कांग्रेस और बीजेपी राजनीतिक फंडिंग को आरटीआई के दायरे में नहीं लाना चाहतीं तो यह शर्म की बात है और आपका वोट इनमें से किसी पार्टी को नहीं जाएगा. आज आप उसी पार्टी में हैं. क्या वहां आप बीजेपी अध्यक्ष से पार्टी की फंडिंग का हिसाब मांगेंगी?

2. आप ही हैं जिन्होंने गुजरात दंगों के मामले में क्लीन चिट मिलने के बावजूद नरेंद्र मोदी की ओर से सफाई दिए जाने की जरूरत बताई थी. क्या अब 'सफाई' की वह जरूरत अब भी बची हुई है या स्वच्छता अभियान के झोंके में कहीं बह गई है?

3. क्या राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर आपकी जो पुरानी समझदारी थी, उससे आपका मोह भंग हो गया है? क्या इसे आपके राजनीतिक हृदय परिवर्तन के रूप में देखा जाए? अब तक बीजेपी के खिलाफ कही गई अपनी ही बातों से अब असहमत हो गई हैं?

4. क्या महिला सशक्तिकरण के अपने अभियान को आप बीजेपी में भी कायम रखेंगी? रेप और दंगों के मामलों में नामजद मंत्रियों के खिलाफ विरोध दर्ज कराएंगी? खाकी वर्दी पहनी है आपने, साक्षियों और साध्वियों की बदजुबानी को डिफेंड तो नहीं करेंगी ना?
5. आप ही थीं जिसने आम आदमी पार्टी से अलग होने के बाद 'अपॉलिटिकल' यानी 'गैर-राजनीतिक' बने रहने की इच्छा जताई थी. किसी दल में जाने की खबरों को आप खारिज करती रहीं. लेकिन बीजेपी के सीएम उम्मीदवार की कुर्सी खाली दिखी तो अपने सिद्धांतों से ही मुंह मोड़ लिया. आप निजी फायदे के लिए नहीं, देशसेवा के लिए बीजेपी में गई हैं, यह मानने का हमारे पास क्या कारण है? नई पार्टी बनाकर चुनाव लड़ना एक तरह का संघर्ष है. इसमें बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है. लेकिन लगातार जीत रही एक स्थापित पार्टी में जाने के मायने दूसरे हैं. यह एक 'प्रिविलेज' है, यहां आपको अपने लिए कहीं ज्यादा मिल सकता है. ऐसे में हम आपको अवसरवादी और स्वार्थी क्यों न मानें?

6. अब शक होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आप आंदोलन के समय से ही घोर राजनीतिक रही हों? कहीं ऐसा तो नहीं कि अन्ना के मंच पर बैठते और बोलते वक्त भी आपके दिल के तार बीजेपी से जुड़े हुए थे?
7. बीजेपी भी उसी राजनीतिक व्यवस्था का अंग है जिसके खिलाफ अन्ना का आंदोलन हुआ था. फिर बीजेपी में ही जाना था, तो कांग्रेस क्या बुरी थी? या उससे इस बात की तल्खी थी कि उसने तमाम योग्यताओं के बावजूद आपको कमिश्नर नहीं बनाया?

8. मुख्यमंत्री ही बनना था तो 2013 में आम आदमी पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव क्यों नहीं स्वीकार किया? या संभव है आपको AAP की सरकार बनने का कोई अंदेशा न रहा हो.

किरण जी, स्कूल में पढ़ते थे तो आपका नाम जीके की किताब में भी आता था. देश की पहली महिला आईपीएस. एक ईमानदार और तेज-तर्रार पुलिस अधिकारी. बॉय कट बाल. बोलती थी तो लगता था कि डांट देंगी तो बड़े-बड़े शोहदे पैंट गीली कर देंगे. इस छवि के प्रति मन में एक सम्मान था आपके लिए. बहुत सारे नौजवान आपके दिए भरोसे की बदौलत इस मुश्किल रास्ते पर आए थे. जब वे बहुत आगे बढ़ चुके हैं और एक अहम लड़ाई के मुहाने पर हैं, तभी आप हाथ छुड़ाकर शॉर्टकट की ओर भाग गई हैं. इसलिए फिर दोहराता हूं, आपके बीजेपी में जाने से समस्या नहीं है, लेकिन कांग्रेस-बीजेपी के खिलाफ लड़ते-लड़ते बीजेपी में जाने से है.
आपका यह राजनीतिक अवसरवाद एक आंदोलन से पैदा हुए समूचे आशावाद को ध्वस्त करता है. अन्ना हजारे की पीठ में छुरा किसने घोंपा, ये किसी से छिपा नहीं है. आपको आपकी नई राजनीतिक पहचान और ताकत मुबारक हो. रामविलास पासवान को उनके जैसी नई संगत मुबारक हो. आपको आपके अच्छे दिन मुबारक हों. लेकिन जब टीवी पर आपका यह परिचय देखेंगे कि  'किरण बेदी, बीजेपी नेता' तो कुछ दिन तो अजीब लगेगा, मैडम.

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