Sunday, November 24, 2013

विकल्प की अकाल मौत की कोशिश

आम आदमी पार्टी यानी 'आप' के लिए यह संकट का समय है। कई लोग काफी खुश हैं, खासतौर से वे लोग, जो शुरू से ही 'आप' को संदेह की नजर से देखते थे। कुछ वे भी हैं, जो इससे ईष्र्यादग्ध थे और अरविंद केजरीवाल की कामयाबी से जल रहे थे। कई ऐसे भी हैं, जो केजरीवाल की कामयाबी से जुड़कर अपनी कामयाबी का रास्ता तलाश रहे थे और जब एंट्री नहीं मिली, तो उसको बरबाद करने में जुट गए। पर ये हमले पहली बार नहीं हुए हैं। पहले भी गंभीर आरोप लगे और आगे भी लगेंगे। लेकिन चुनाव के ठीक पहले इस संकट ने एक सवाल जरूर खड़ा कर दिया है। सवाल साख का है, और राजनीतिक मजबूती का भी है? और सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या इस संकट का सामना करने का माद्दा 'आप' के नेतृत्व में है? मुझे ध्यान है कि जब अन्ना ने आंदोलन शुरू किया था, तब भी समाज के एक तबके को शिकायत थी। खासतौर से अंग्रेजीदां तबके को गांव-देहात का एक बुजुर्ग और उसके साथ सामान्य कद-काठी का एक मध्यम वर्गीय लड़का पसंद नहीं आ रहा था। तब तीन तरह के तर्क दिए गए थे। एक, अन्ना जिस जन-लोकपाल की मांग कर रहे हैं, वह भारतीय संविधान के बुनियादी नियमों के खिलाफ है। हमारा संविधान सत्ता के संतुलन पर आधारित है, जबकि जन-लोकपाल इस संतुलन को खत्म कर देगा।
दो, अन्ना हजारे का आंदोलन पूरी राजनीतिक व्यवस्था को ही डिस्क्रेडिट कर रहा है, जिससे अंत में अराजकता पैदा होगी और पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है। तीन, इस आंदोलन के कारण सरकार, नौकरशाही ने काम करना बंद कर दिया है, क्योंकि हर वह आदमी, जो फैसले ले सकता है, वह अंदर से डर गया है कि कहीं उसे जेल न जाना पड़े। इस वजह से सरकार लकवे का शिकार हो गई और विकास की गति ठहर गई। मैंने तब भी लिखा था कि ये तीनों ही तर्क बेबुनियाद हैं। जन-लोकपाल का मतलब यह कतई नहीं था कि मौजूदा राज-व्यवस्था के खिलाफ एक समानांतर व्यवस्था खड़ी हो। जन-लोकपाल की मांग समाज में क्रांति का आह्वान नहीं, बल्कि मौजूदा व्यवस्था को अंदर से ठीक करने की एक कोशिश थी। इसलिए रामलीला मैदान का अन्ना का अनशन तीन मांगों के माने जाने पर खत्म हो गया था। इसके केंद्र में था सरकार और नौकरशाही में जवाबदेही व पारदर्शिता लाने का वायदा। अगर लोकपाल देश में समानांतर व्यवस्था खड़ा करने का उद्यम होता, तो सरकार कानून बनाने का प्रयास कतई नहीं करती। फिर यह आरोप अन्ना पर कैसे लगाया जा सकता था कि वह राजनीति को डिस्क्रेडिट कर रहे हैं, जबकि राजनीति पहले से ही अपनी साख खो चुकी है।
आज नेताओं पर लोगों को यकीन नहीं है। हर आदमी यह मानता है कि राजनीति पैसा कमाने का धंधा है। तमाम सर्वे मेरी बात की तस्दीक करते हैं। यह बात भी मेरे गले कभी नहीं उतरी कि आंदोलन की वजह से सरकार को लकवा मार गया। मेरे लिए यह एक दार्शनिक सवाल है। क्या भारत को भ्रष्टाचार के सहारे सुपर पावर बनना चाहिए? अगर ऐसा होता है, तो क्या यह स्थिति आम आदमी और देश के लिए सुखद व स्थायी होगी? मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार के बल पर खड़ी की गई इमारत ज्यादा नहीं चलती। वह किसी न किसी दिन भरभरा कर गिरती ही है और तब भारत के अस्तित्व को ज्यादा बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। दरअसल, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की साख को खत्म करने के लिए इस तरह के तर्क गढ़े गए और इस प्रक्रम में वे तमाम तत्व एकजुट हो गए, जिनके स्वार्थ को इस आंदोलन से नुकसान होता। यही वजह है कि राजनेता, कारोबारी घरानों व प्रबुद्ध वर्ग की तिकड़ी ने एक ऐसा उपक्रम रचा कि अन्ना का आंदोलन अपने मुकाम तक न पहुंच पाए।
अन्ना और उनकी टीम में दरार डाली गई। एक-दूसरे के खिलाफ लोगों को भड़काया गया और अंत में अन्ना ने अपने आप को पूरी तरह से अलग कर लिया। केजरीवाल ने राजनीति में जाने का फैसला किया और आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ। दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ने का फैसला हुआ। अन्ना ने कई यात्राएं कीं, पर वह नाकामयाब होकर रालेगांव सिद्धि बैठ गए। केजरीवाल के लिए राजनीति नई थी। मुझे भी ज्यादा उम्मीद नहीं थी। लेकिन तमाम सर्वेक्षणों ने 'आप' पार्टी के प्रति लोग की सहानुभूति को साफ दर्शाया। लगने लगा कि यह पार्टी सरकार बनाए या न बनाए, लेकिन यह जरूर तय करेगी दिल्ली में सरकार कौन बनाएगा। महज एक साल में 'आप' का दिल्ली की राजनीति में एक दमदार मुकाम हासिल करना यह दर्शाता है कि लोग स्थापित और परंपरागत राजनीति और राजनीतिक दलों से उब चुके हैं। उन्हें एक सशक्त विकल्प की तलाश है। उन्हें लगता है कि जिस भारत की कल्पना गांधी जी और संविधान निर्माताओं ने की थी, ये वह भारत नहीं है।
इस भारत में करोड़ों रुपये खर्च करके पहले राजनीतिक दलों से टिकट खरीदे जाते हैं और फिर अरबों खर्च करके चुनाव जीते जाते है। सत्ता में आने के बाद खर्च हुए पैसे की उगाही जनता की जेब से की जाती है और भ्रष्टाचार को खुलेआम सही ठहराया जाता है। जब कोई इनके खिलाफ आवाज बुलंद करता है, तो उसको डिस्क्रेडिट करने का कुचक्र होता है। ऐसे मौकों पर प्राय: राजनीतिक मतभेद भुला दिए जाते हैं। 'आप' कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि क्या इस देश में पेशेवर राजनीतिक दल कभी किसी स्वस्थ राजनीतिक विकल्प को अपनी जड़ें जमाने देंगे या नहीं? और मसला यह भी है कि विकल्प की वकालत करने वालों में क्या इतना धैर्य और जीवट है कि वे तमाम झंझावातों से निकलकर अपने मकसद में कामयाब हो सकें? मैं यह दावे से कह सकता हूं कि लोगों के अंदर एक आग धधक रही है, इस आग को अगर सही नेतृत्व मिला, तो हिन्दुस्तान का चेहरा बदल जाएगा और फिर भारत सही मायने में सपनों का देश होगा, असली सुपर पावर!
Source,...Ashutosh IBN7
http://khabar.ibnlive.in.com/blogs/16/941.html

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