महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी ने ध्वनिमत से विश्वास हासिल करने का
दावा किया है. नवनिर्वाचित स्पीकर ने बैलट वोट की बजाय ध्वनि मत को तरज़ीह
दी. पार्टी ने इसका फायदा उठाते हुए विश्वासमत हासिल कर लिया. लेकिन इससे
कई सवाल उठ खड़े हुए. फडनवीस के 'विश्वास' पर उंगली
अब हम बताते हैं वो दस वजहें, जिनसे इस विश्वासमत पर अविश्वास हो रहा है...
1. सबसे पहले तो स्पीकर को बैलट की बजाय ध्वनिमत का सहारा लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह एक नई सरकार के विश्वास का मामला था. अमूमन ऐसा प्रावधान बिल वगैरह पारित कराने में होता है, लेकिन विश्वास हासिल करते समय स्पीकर ध्वनिमत का सहारा लेने दें, ऐसा शायद ही कभी सुना गया होगा.
2. ध्वनिमत में सबसे बड़ी बात यह होती है कि यह पता करना कि कितने लोग पक्ष में हैं और कितने विपक्ष में, बहुत मुश्किल है. वहां भी विधानसभा में शोर-शराबा हो रहा था. ऐसे में महज विधायकों की आवाज सुनकर यह कह देना कि फलां के पक्ष में ज्यादा सदस्य हैं, उचित नहीं होगा.
3. बीजेपी के पास बहुमत नहीं है और पार्टी के साथ 144 विधायक नहीं हैं, यह बात पार्टी भी मान रही है. अनेक प्रयासों के बाद वह 137 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई है. ऐसे में यह कहना कि उसके पास बहुमत है, गलत होगा.
4. बीजेपी को बाहर से समर्थन दे रही एनसीपी के सदस्य अगर वॉक आउट कर जाते, तो भी बात बन जाती. वे भी वहां बैठे हुए थे. क्या उन्होंने इस पर बिल्कुल चुप्पी साध ली थी?
5. अगर स्पीकर को ध्वनिमत का ही सहारा लेना था, तो उन्होंने पक्ष और विपक्ष में बंटवारा क्यों नहीं करवाया? इससे स्थिति स्पष्ट हो जाती कि कितने सदस्य साथ हैं और कितने नहीं.
6. विश्वास प्रस्ताव रखने में इतनी जल्दबाजी की गई कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिले. विधानसभा के स्पीकर को यह अधिकार तो है, लेकिन ऐसा करना नैतिक दृष्टि से कितना उचित है, यह सोचना होगा.
7. स्पीकर ने शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे को विश्वास मत के पहले विपक्ष के नेता का पद क्यों नहीं दिया? विश्वास मत मिलने के तुरंत बाद उन्हें विपक्ष का नेता बना देने से संदेह गहरा जाता है कि उनके मन में कुछ चल रहा था.
8. एनसीपी ने हालांकि सदन के बाहर यह एलान किया था कि पार्टी बीजेपी का समर्थन करेगी, उसने सदन में ऐसा कुछ नहीं किया और स्पीकर को इस बात की विधिवत सूचना भी नहीं दी.
9. स्पीकर ने अपना चुनाव होते ही तुरंत विश्वास प्रस्ताव जितनी तेजी से रखा और वह भी सिर्फ एक पंक्ति का, वह भी अजीब-सा था. इतनी जल्दी और हड़बड़ी में उन्होंने यह किया कि दूसरी पार्टी के नेता समझ भी नहीं पाए.
10. इस पूरे एपिसोड में सिर्फ राजनीति दिखाई देती है. विश्वास मत के पारित होने की घोषणा इतनी जल्दबाजी में क्यों कर दी गई कि किसी को कुछ पता ही नहीं चला. नैतिकता की दृष्टि से यह उचित नहीं दिखता. कुल मिलाकर यह विश्वास प्रस्ताव से ज्यादा एक तरह की बाजीगरी दिखती है.
अब हम बताते हैं वो दस वजहें, जिनसे इस विश्वासमत पर अविश्वास हो रहा है...
1. सबसे पहले तो स्पीकर को बैलट की बजाय ध्वनिमत का सहारा लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह एक नई सरकार के विश्वास का मामला था. अमूमन ऐसा प्रावधान बिल वगैरह पारित कराने में होता है, लेकिन विश्वास हासिल करते समय स्पीकर ध्वनिमत का सहारा लेने दें, ऐसा शायद ही कभी सुना गया होगा.
2. ध्वनिमत में सबसे बड़ी बात यह होती है कि यह पता करना कि कितने लोग पक्ष में हैं और कितने विपक्ष में, बहुत मुश्किल है. वहां भी विधानसभा में शोर-शराबा हो रहा था. ऐसे में महज विधायकों की आवाज सुनकर यह कह देना कि फलां के पक्ष में ज्यादा सदस्य हैं, उचित नहीं होगा.
3. बीजेपी के पास बहुमत नहीं है और पार्टी के साथ 144 विधायक नहीं हैं, यह बात पार्टी भी मान रही है. अनेक प्रयासों के बाद वह 137 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई है. ऐसे में यह कहना कि उसके पास बहुमत है, गलत होगा.
4. बीजेपी को बाहर से समर्थन दे रही एनसीपी के सदस्य अगर वॉक आउट कर जाते, तो भी बात बन जाती. वे भी वहां बैठे हुए थे. क्या उन्होंने इस पर बिल्कुल चुप्पी साध ली थी?
5. अगर स्पीकर को ध्वनिमत का ही सहारा लेना था, तो उन्होंने पक्ष और विपक्ष में बंटवारा क्यों नहीं करवाया? इससे स्थिति स्पष्ट हो जाती कि कितने सदस्य साथ हैं और कितने नहीं.
6. विश्वास प्रस्ताव रखने में इतनी जल्दबाजी की गई कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिले. विधानसभा के स्पीकर को यह अधिकार तो है, लेकिन ऐसा करना नैतिक दृष्टि से कितना उचित है, यह सोचना होगा.
7. स्पीकर ने शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे को विश्वास मत के पहले विपक्ष के नेता का पद क्यों नहीं दिया? विश्वास मत मिलने के तुरंत बाद उन्हें विपक्ष का नेता बना देने से संदेह गहरा जाता है कि उनके मन में कुछ चल रहा था.
8. एनसीपी ने हालांकि सदन के बाहर यह एलान किया था कि पार्टी बीजेपी का समर्थन करेगी, उसने सदन में ऐसा कुछ नहीं किया और स्पीकर को इस बात की विधिवत सूचना भी नहीं दी.
9. स्पीकर ने अपना चुनाव होते ही तुरंत विश्वास प्रस्ताव जितनी तेजी से रखा और वह भी सिर्फ एक पंक्ति का, वह भी अजीब-सा था. इतनी जल्दी और हड़बड़ी में उन्होंने यह किया कि दूसरी पार्टी के नेता समझ भी नहीं पाए.
10. इस पूरे एपिसोड में सिर्फ राजनीति दिखाई देती है. विश्वास मत के पारित होने की घोषणा इतनी जल्दबाजी में क्यों कर दी गई कि किसी को कुछ पता ही नहीं चला. नैतिकता की दृष्टि से यह उचित नहीं दिखता. कुल मिलाकर यह विश्वास प्रस्ताव से ज्यादा एक तरह की बाजीगरी दिखती है.
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