रविश की कलम से……
नई दिल्ली: राजनीति मनमोहन देसाई की फिल्म की
तरह है, जो फ्लैशबैक से शुरू होती है, जिसमें दो लड़के अपने परिवेश के
बंधनों को तोड़कर भागते हैं और पुल से चलती रेल पर कूदते समय हवा में ही
बड़े हो जाते हैं। पर्दे पर लिखा आता है 'इंटरमिशन'। फिल्म तो समाप्त हो
जाती है, लेकिन हकीकत और अंतर्विरोध का जो ढांचा होता है, वह असली और पर्दे
के जीवन पर बना रहता है, इसलिए हार और जीत किसी कहानी के मोड़ ज़रूर हो
सकते हैं, मगर ज़रूरी नहीं कि इससे बुनियादी सवालों पर बहुत फर्क पड़ जाए।
2011-13 की दिल्ली ने जो उम्मीदें जगाईं थीं, वे अब कहां हैं। राजनीति को
बदलने के सवाल गुलज़ार का गाना गा रहे होंगे - "मेरा कुछ सामान तुम्हारे
पास पड़ा है, एक सौ सोलह चांद की रातें, एक तुम्हारे कांधे का तिल, गीली
मेंहदी की खुश्बू, झूठ-मूठ के वादे, वो भिजवा दो..." कहीं ऐसा तो नहीं कि
दिल्ली उस थियेटर से निकलकर 'हैप्पी न्यू ईयर' जैसी चतुर्थस्तरीय फिल्म
देखने में मगन हो गई है, जहां नैतिकता का मतलब सिर्फ जीत है। चोर जीते,
लेकिन इंडिया के लिए जीते। वैसे इस फिल्म ने कमाई के रिकॉर्ड भी बनाए हैं।
काला धन और भ्रष्टाचार का मुद्दा अब लतीफे में बदल गया है। लोकपाल का
जुनून उस शामियाने की तरह उजड़ गया है, जिसके भीतर कुर्सी कहीं से आई थी और
लाउडस्पीकर कहीं से। सब अपना-अपना सामान लेकर चले गए हैं। वित्तमंत्री
सीएजी को सलाह देते हैं कि नीतियों के कई पक्ष हो सकते हैं। जो फैसला है,
वह लिया जा चुका है, वह सनसनी न करें, हेडलाइन की भूख छोड़ दें। फिर सफाई
आती है कि बात को संदर्भ से काटकर पेश किया गया, लेकिन यह नहीं बताया जाता
कि वह बात क्या थी, जो कट-छंट गई। हमारे नेता ही संपादक हैं। कब संदर्भ
समाप्त कर मुद्दे को महज़ नारे में समेट देते हैं और कब नारे को किनारे
लगाकर संदर्भ समझने की अपील करने लगते हैं, इसका फैसला उन्हीं के पास
सुरक्षित है। हर किसी के खाते में तीन लाख आएगा या नहीं, अब यह आक्रोश की
जगह लतीफे का मामला बन गया है। जब पता नहीं था, तब संसद में बहस की मांग
क्यों हुई, स्थगन क्यों हुए, यात्राएं क्यों निकाली गईं। वे दस्तावेज़ कहां
से आए, जिनके आधार पर कहा गया कि देश में लाखों करोड़ का कालाधन है।
रेडियो पर प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसी को पता नहीं कि काला धन कितना है,
पर पाई-पाई लाएंगे, इसका भरोसा उन पर कीजिए। तो क्या भ्रष्टाचार का वह
मुद्दा नकली था, तब क्यों नेता ऐसे बोल रहे थे कि किसी को पता नहीं था।
दो सवाल हैं। काला धन आने को लेकर, दूसरा भ्रष्टाचार मिटाने को लेकर। क्या
ये दोनों सवाल इस कदर बेमानी हो चुके हैं कि अब इन पर सिर्फ लतीफे ही बनाए
जा सकते हैं। अगर यही बात मनमोहन सिंह कहते कि उन्हें पता नहीं कि कितना
काला धन है, तब 2013 का मीडिया और सोशल मीडिया उनके साथ क्या सलूक करता। अब
किरण बेदी, बाबा रामदेव सब चुप हैं। सबने इस सवाल को सिर्फ एक व्यक्ति के
भरोसे छोड़ दिया है। तब तो इनका सवाल कुछ और था कि भ्रष्टाचार के सवाल को
किसी एक व्यक्ति या सरकार के भरोसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। यह काम सिर्फ और
सिर्फ लोकपाल कर सकता है। क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि लोकपाल को
लेकर वैसा आक्रोश अब भी है। ग्यारह महीने से लोकपाल नहीं है और अब इसे लेकर
कोई बयान भी नहीं है। राज्यों में भ्रष्टाचार के सवाल पर तो अब करीब-करीब
खामोशी-सी छा गई है। जैसे भ्रष्टाचार केंद्र सरकार ही खत्म करेगी और वह भी
एसआईटी के ये दो जज, जो इस वक्त वैकल्पिक लोकपाल की तरह उम्मीद बनते हुए
प्रतीत होते हैं, लेकिन इनका दावा भी अजीब है। एक साल में ठीक-ठाक पता कर
लेंगे काले धन के बारे में। सवाल तो लोकपाल जैसे सिस्टम का था, जो इस
महामारी से एक लड़ाई की शुरुआत करता।
इस आंदोलन ने राजनीति में कई
नायक दिए। यह और बात है कि इनका नायकत्व किसी और नायक में विलीन हो गया। अब
हर दूसरा-तीसरा 'टटपूंजिया आंदोलन' भी 'आज़ादी की दूसरी लड़ाई' कहा जाने
लगा है। दिल्ली के ज्यादातर भ्रष्टाचार विरोधी नायकों ने अपनी-अपनी
निष्ठाएं घोषित कर दी हैं, जिनके आधार पर इनकी चुप्पी और मुखरता तय हो रही
है। तब तो 'न भ्रष्टाचार न, अबकी बार न...' एक उम्मीद टूटती थी तो एक अनशन
आकर उसे संभाल लेता था। अब यह सब नौटंकी में बदल दिया गया है। जाने-अनजाने
में एफएम रेडियो ने लोकतांत्रिक आयोजनों को प्रहसन में बदल दिया है।
2013 में दिल्ली भ्रष्टाचार के सवाल पर ठीक से अपना पक्ष तय नहीं कर पाई।
जितना बीजेपी को पसंद किया, उतना ही आम आदमी पार्टी को। कांग्रेस को जो
सज़ा मिली, उसे वही सज़ा देश भर में मिली। तब बीजेपी और आम आदमी पार्टी एक
दूसरे से नहीं, बल्कि कांग्रेस से लड़ रहे थे। इस बार लड़ाई बदल जाएगी।
बीजेपी और आम आदमी पार्टी आमने-सामने हैं और इस लड़ाई में कांग्रेस अपने
लिए कुछ जगह खोज रही है। लेकिन क्या वाकई आम आदमी पार्टी सामने-सामने से
बीजेपी पर वार करेगी। बीजेपी नहीं, मोदी पर वार करेगी। मीडिया, सोशल मीडिया
के सहारे इस लड़ाई को व्यक्तिगत बना दिया जाएगा। यही वास्तविकता है। पर
क्या दिल्ली खुद को इस व्यक्तिवादी राजनीति से निकलकर सिस्टम से जुड़े
मुद्दों पर कोई समझदारी कायम करेगी। बहस की दिशा को बदल पाएगी।
क्या
आम आदमी पार्टी जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के सवाल पर उस भावुकता को दोबारा
रच पाएगी, जो उसने उन दो सालों में किया था। आम आदमी पार्टी अपनी स्थापना
का चुनाव उस मुद्दे के सहारे लड़ेगी, जिसके आधार पर वह कायम हुई थी। 2013
और 2014 की दिल्ली काफी बदल गई है। दिल्ली का चुनाव इस बार भारतीय राजनीति
की दिशा तय कर देगा। वह यह कि अब राजनीति वही होगी, जो मध्यमवर्ग चाहेगा।
वह इस वक्त राजनीति को टीवी सीरियल की तरह देख रहा है, जहां नए-नए कपड़ों
में सजे किरदार उसे रुलाते हैं, तो कभी हंसाते हैं। इस चुनाव में दिल्ली के
लिए कुछ नहीं है। जैसे उस चुनाव में दिल्ली के लिए कुछ नहीं था। आम आदमी
पार्टी अब एक राजनीतिक दल में ढल चुकी है। अब उन नौसिखिये समाजसेवियों की
फौज नहीं रही, जो राजनीति को बदलने के लिए निकले थे। उसके राजनीतिक
अंतर्विरोध भी सामने आते रहते हैं। जिसके भीतर राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई
लोकसभा की हार के बाद शुरू होकर थम तो गई थी, लेकिन इस चुनाव के बाद फिर
उभरेगी। दिल्ली का फैसला बताएगा कि भविष्य में नई पार्टी के लिए राजनीतिक
स्पेस क्या रहेगा। कभी खत्म नहीं होगा, मगर उस स्पेस को लेकर नए तरह के सबक
ज़रूर कायम होंगे। फिलहाल एक बात आम आदमी पार्टी के पक्ष में ज़रूर जाती
है कि उसके विधायक नहीं टूटे। किसी ने अपनी पार्टी से बाहर से जाकर स्टैंड
लेते हुए इस्तीफा देकर बीजेपी के लिए स्पेस नहीं बनाया। देखते हैं कि
अरविंद केजरीवाल अपने उन मुद्दों को छोड़ देते हैं या उन्हीं के सहारे फिर
मैदान में उतरते हैं या नहीं।
यह चुनाव जितना नरेंद्र मोदी का नहीं
होगा, उतना अरविंद केजरीवाल का होगा। इस बीच जनता उन्हें कुछ दिन सरकार में
और बहुत दिन विपक्ष में देख चुकी है। जिस भावुकता और जादू के निर्माण करने
का सोशल मीडियाई संसाधन केजरीवाल की टीम ने जुटाया था, उसे बीजेपी ने बड़े
पैमाने पर अपना लिया है। यह चुनाव दो दलों के संसाधनों के प्रदर्शन के
टकराव का भी चुनाव होने जा रहा है। संसाधनों के मामले में आम आदमी पार्टी
बीजेपी से हमेशा कमज़ोर रहेगी, इसलिए 'आप' का असली इम्तहान शुरू होता है
अब। दिल्ली जी, लॉक किया जाए - अमिताभ की शैली में बोलें तो। देखते हैं,
दिल्ली किसे लॉक करती है।
कई लोग कह रहे हैं कि यह चुनाव आम आदमी
पार्टी के लिए 'करो और मरो' का चुनाव होगा। उनका आकलन है कि अगर विपक्ष
लायक बनी तो पार्टी खत्म हो जाएगी। कोई पार्टी विपक्ष में आकर खत्म कैसे हो
जाती है। क्या महाराष्ट्र में 15 साल विपक्ष में रहकर बीजेपी खत्म हो गई
थी। क्या केंद्र में 10 साल सत्ता से बाहर रहकर बीजेपी खत्म हो गई थी।
लेकिन भारतीय राजनीति में अपने लिए दिल्ली जैसा छोटा संदर्भ और लक्ष्य
चुनकर अरविंद केजरीवाल ने भी खुद को इन सवालों के घेरे में नहीं ला दिया
है। जब दिल्ली नहीं तो फिर कहां। इस चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी का भविष्य
भी दांव पर होगा। मेरा अपना मानना है कि हिन्दुस्तान की जनता भ्रष्टाचार
के सवाल पर ईमानदार नहीं है। जो इस मुद्दे को लेकर आग में कूदेगा, वह जलकर
मर जाएगा। जनता भ्रष्टाचार सिस्टम की लाभार्थी है। उसे अपनी अन्य निष्ठाएं
भ्रष्टाचार से ऊपर लगती हैं। वह भ्रष्टाचार के साथ जीना सीख चुकी है। उसे
इस मुद्दे और देश की राजनीति से 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' हो गया है। जो
उत्पीड़क है, उसी से प्यार हो गया है उसे। अगर अरविंद इस धारणा को गलत
साबित कर देते हैं तो आम आदमी पार्टी मोदी के वर्चस्ववादी राजनीति और युग
में फिर से उम्मीद बनकर ज़िंदा हो जाएगी। दांव तो सिर्फ 'आप' का है। बचे
रहने का और मिट जाने का। यह चुनाव अब 'आप' का है, जनता का नहीं। जो अरविंद
कहा करते थे कि चुनाव जनता का है, वही जीतेगी या वही हारेगी।
ज़रा
सोचिए। बीजेपी की जीत हुई तो नरेंद्र मोदी का कैसा बखान होगा। मोदी तो
जीतते ही आ रहे हैं। उनके फैलाए वृत्तांतों के अनुसार ही बहसें चल रही हैं।
बाकी दल और नेता अपने अंतर्विरोधों से भाग रहे हैं तो मोदी रोज़ एक नया
अंतर्विरोध पैदाकर के भी बच निकल जा रहे हैं। विरोधी कन्फ्यूज हैं कि मोदी
पर हमला करें या नहीं। मोदी को इस तरह का कन्फ्यूज़न नहीं है। वह जब चाहते
हैं, जिस पर चाहते हैं, हमले करते हैं। वह एक नहीं, हज़ार तीर लेकर उतरते
हैं। बिना देखे दाएं-बाएं छोड़ते रहते हैं। हालांकि उनका हर कदम योजना के
हिसाब से ही होता है। टीवी और मीडिया को सिर्फ और सिर्फ एक ही योद्धा लड़ता
हुआ दिखता है और इस दुनिया में जो दिखता है, वही बिकता है। क्या अरविंद
केजरीवाल मोदी पर उस तरह से सीधे टारगेट कर पाएंगे। बीजेपी उन्हीं के सहारे
तो मैदान में उतरेगी। कांग्रेस के लिए भी नए नेतृत्व को आज़माने का मौका
है। क्या वह कुछ खड़ी हो पाएगी। शीला दीक्षित के सहारे मैदान में उतरेगी या
फिर कोई और नया नेता आएगा।
यह भी ध्यान रखना होगा कि क्या इस बार
भी दिल्ली का चुनाव किसी राजनीतिक बदलाव की चाहत के लिए होगा। दिल्ली ने
राजनीति को बदलने का सपना छोड़ दिया है। अगर दिल्ली में बदलाव की चाहत होती
तो वह बवाना और त्रिलोकपुरी की घटना पर इतनी खामोश न होती। वह इन घटनाओं
के समर्थन में भले मुखर नहीं है, लेकिन लोगों का मौन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
पूर्ण हो चुका है। चूंकि सेकुरलिज्म की तरह यह भी एक बैड वर्ड है, इसलिए
दिल्ली का नफ़ीस तबका इसका प्रदर्शन नहीं करेगा। किन्हीं और बहानों के
सहारे इस पर चुप रहेगा।
बवाना की पंचायत अगर यूपी में होती तो अब तक
कई सवाल अखिलेश सरकार पर दागे जा चुके होते कि सपा बीजेपी से मिली हुई है,
ताकि इस ध्रुवीकरण का लाभ दोनों मिलकर उठा लें। दिल्ली में जवाबदेही के
सवाल पर वैसी आक्रामकता गायब है। क्यों किसी ने नहीं कहा कि जिस दिल्ली के
लाल किले से 10 साल तक सांप्रदायिकता पर रोक लगाकर देशसेवा में जुटने का
आह्वान किया गया, उसी दिल्ली में किसकी इजाज़त से महापंचायतें हो रही हैं।
क्यों तनाव हो रहे हैं। क्यों नहीं ऐसे वक्त में प्रधानमंत्री सार्वजनिक
रूप से डांट लगाते हैं कि बंद कीजिए। मेरी नज़र है ऐसी घटनाओं पर। वह भी एक
ऐसे प्रधानमंत्री से उम्मीद तो की जा सकती है, जिनका खासा समय मीडिया के
माध्यमों में गुज़रता है। आम आदमी पार्टी ने भी सांप्रदायिकता के खिलाफ
स्टैंड लेकर यात्राएं नहीं निकालीं। घर-घर जाकर लोगों से पर्चे नहीं बांटे।
कांग्रेस और 'आप' ने मीडियाई बयान देने की औपचारिकता भर पूरी की। वर्ना
कोई बवाना के समानांतर सौहार्द पंचायत करने की भी सोच सकता था। सब इस सवाल
पर कन्फ्यूज़ हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि लोकसभा की तरह सेकुलरिज़्म के
बैड वर्ड बन जाने का नुकसान न उठाना पड़े। यही तो राजनीति है। नुकसान उठाकर
भी आप अपने आदर्शों को नही छोड़ें। लेकिन तब क्या करेंगे, जब सामने वाला
हर तरह के आदर्शों की तिलांजलि देकर जीतने पर आमादा है। चुनावी राजनीति की
यही तो सीमा है। हर किसी को इसमें फंस जाना पड़ता है। नैतिकता टीवी
स्टुडियो में बहस के लिए बची रह जाती है।
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