Friday, November 14, 2014

1 never means,......never,... 3 never means,......May be when required!!

दिल्ली कहेगी दिलसे ,…केजरीवाल फिरसे #KejriwalFirSe
मोदी जी,....मैं हूँ तो आपका भक्त पर ,....
मोदीत्व की तरफ बढ़ती इस #BJP ने आज जो कृत्य किया है ,…
ऐसा लग रहा है ,....उस तालाब में डूब जाऊँ ,…जिसको
अजित पवार ने ,…अपने प्रयासों से भरा हो

1 never means,......never,...
3 never means,......May be when required!!!!
भाई वो एक घोटाला था,... सिचाई वाला ,…
कब खुलेगी वो फाइल?,....
कौन खोलेगा फाइल बीजेपी वाले या वो ( Naturally Corrupt Party ) NCP वाले??,…
और हां,....
वो तालाब भी भरना था ,… इस बार किसके पेसाब से भरेगा???,
अब बीजेपी वाला या ( Naturally Corrupt Party ) NCP की तरफ से ,…
और हा थूक कर चाटने की आदत नहीं है बीजेपी को,…
सायेद इसको यू टर्न कहे या थूक कर चाटना ,.....अपने हिसाब से लगा लो
 
 

तुम्हारे तो पता नहीं ,....ओवैसी के अच्छे दिन ,....ले आये

आखिर किस सच को छुपाने के लिये #BJP भक्तो को इस झूठ का सहारा लेना पड़ा ?
कहीं वो सच ये तो नहीं की ,… ये बीजेपी ही है जो MIM को फंडिंग कर हैदरबाद से बाहर पैर पसारने में मदद कर रही है ?
वो सच ये तो नहीं की ,…की कल महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार बनवाने के लिये MIM ने बीजेपी समर्थन किया ?
कहीं वो सच ये तो नहीं की ,…की बीजेपी ही MIM को दिल्ली में ऑफिस खोलने में मदद कर रही है और चुनाव लड़ने में फंडिंग ?
तो अब आपका सवाल होगा की ,....
आखिर बीजेपी ऐसा क्यों करेगी ,....
तो साहब ,....ये तो साफ़ है की ओवेसी को आगे बढ़ाने से ,…modified बीजेपी को दूरगामी फायदे देख रही है ?
अभी दिल्ली में लड़ेंगे ,....और अपने सबसे बड़ी चुनौती अरविन्द (AAP) को हराने में मदद करेंगे ,....
फिर ये बढ़ते पैर जो उप्र बिहार में जा रहे है 2017 के आगामी चुनाव तक ओवेसी नाम का चेहरा ,.... आजम खान जैसे चेहरे के सामने खड़ा कर दिया जायेगा ,.... ताकि वही राजनीति आगे बढ़ायी जा सके ,.... जिसमे जनता सोती रहे ,…

किसी ने सच ही कहा था ,...."धर्म एक अफीम की गोली है - जिसे खिला शासक जनता का शोषण करता है",…

हम कोई गुजराती तो है नहीं ,.... जो व्यापार मेरे खून में हो ,…
पर ये बात मेरे एक दोस्त ने समझाई जो मार्केटिंग का काम करता है ,....
उसका कहना है,....
व्यापारी अपने व्यापार को सेफ करने के लिये ,…
अपने प्रोडक्ट का competitor खुद ही खड़ा कराता है ,…
जैसे ,…
चाहे अंकल चिप्स खरीदो या लेस ,…पैसा तो पेप्सिको के खाते में ही जाना है ,…
जैसे ,....
दिल्ली में #MIM को वोट दो ,…या #BJP को ,…
बात एक ही है ,……

दिल्ली चुनाव में #MIM का जितना प्रचार होगा,....उतना आज तक के इतिहास में नहीं हुआ होगा ,....
और पैसा ,....
पैसा तो #Ambani का ही होगा ,…
खर्च चाहे #BJP करे या ओवैसी ,…

जैसे इंदिरा गाँधी ने तैयार किया था ==>> भिंडरवाला को
एक बार फिर वही कहानी,.... ठीक उसी तरह
नरेंद्र मोदी ==>> अकबरुद्दीन ओवेसी (MIM) को तैयार कर रहे है ,....

इन संकेतो को देखने - समझने के बाद ये कहने पर मजबूर हूँ ,....
"औवेसी,पंवार झाँकी है,....लोन,हाफ़िज़ बाक़ी है,."

अंत में यही कहना चाहूँगा ,....
"दोस्त तुम्हारे तो पता नहीं ,....ओवैसी के अच्छे दिन ,....ले आये - मोदी जी",…
और आप से अपील करना चाहूँगा की ,…।
एक तरफ जब भ्रष्ट व्यवस्था को पोषित करने वाले ,.... भ्रष्ट व्यवस्था को चुनौती देने वाले अरविन्द के खिलाफ इस कदर क्षणयंत्र रच सकते है ,....
तो ऐसे में देश के हर अच्छे और सच्चे नागरिक का कर्तव्य बन जाता है ,....
ऐसे लोगो को मिलकर - तगड़ा जवाब देने का ,....

इसलिए आपसे अनुरोध ,....
इस बार दिल्ली चुनाव में "तन - मन - धन" पूरी ताकत से जोर लगा दो ,....
क्योंकि देश को जिताना है - जनता को जिताना है ,.... #NagShukl

आप चाहे तो ,… इस वीडियो को देख सकते है ,....
https://www.facebook.com/video.php?v=1539357866309804&set=vb.100007068161033&type=2&theater


Post link:- https://www.facebook.com/WeWantAKasPM/photos/a.454846544538482.96610.454826997873770/843031702386629/?type=1&theater
 

Wednesday, November 12, 2014

अकबरुद्दीन ओवैसी जिसका नाम

अकबरुद्दीन ओवैसी जिसका नाम
हैदराबाद से बाहर की राजनीती में
कभी किसी ने नही सुना वो 2012-13
में अचानक एक बड़ा विवादस्पद चेहरा बन
जाता है ।
सार्वजनिक मारपीट, खून खराबा और
धार्मिक उन्माद से भरे बयानों के चलते
एक के बाद एक ओवैसी नकारात्मक रूप से
ही सही सबकी ज़ुबान पर
चढ़ता चला गया ।
मुझे कहीं न कहीं लगता था ये शायद
कांग्रेस द्वारा मुस्लिम वोटरों पर
अपनी पकड़ मज़बूत बनाने का एक
हथकंडा है । लेकिन जैसे ही ओवैसी ने
नरेंद्र मोदी पर ज़ुबानी हमले शुरू किए मैं
समझ गया था ये हठकंडा कांग्रेस
का नहीं बल्कि खुद भाजपा, संघ और
मोदी के शातिर दिमाग की उपज है ।
देश की राजनीती में
ओवैसी का अचानक प्रकट
होना मुस्लिम
वोटों का नहीं बल्कि हिन्दू वोटों के
ध्रुवीकरण का मास्टर प्लान था ।
कुछ दिन पहले यह बात मैंने अपनी फेसबुक
वॉल पर लिखी भी थी और तब मेरे कुछ
मोदीभक्त मित्रों को ये बात
बड़ी नागवार गुज़री थी ।
महाराष्ट्र में MIM का भाजपा से
नाजायज़ रिश्ता सामने आ ही गया ।
आज मेरी बात बिलकुल सही साबित हुई

-भावेश जयंत वालवेकर

पता है हमारे देश में कितने विभाग है ?

001. Department of Ocean Development
002. Central Public Works Department
003. Department of Agriculture and Cooperation
004. Department of Agricultural Research and Education
005. Department of Animal Husbandry and Dairying
006. Department of Food Processing Industries
007. Department of Chemicals and Petrochemicals
008. Department of Fertilizers
009. Directorate General of Civil Aviation
010. Depart of Coal
011. Department of Commerce
012. Directorate General of Commercial Intelligence & Statistics
013. Controller General of Patents, Designs and Trade Marks
014. Trade Marks Registry
015. Department of Industrial Policy & Promotion
016. Office of Economic Advisor
017. Department of Supply
018. Directorate General of Supplies & Disposals
019. Communications and Information Technology
020. Department of Telecommunications
021. Department of Posts
022. Directorate of Standardisation, Testing and Quality Control
023. Electronic Governance Division
024. Consumer Affairs and Public Distribution
025. Department of Public Distribution
026. Department of Consumer Affairs
027. Department of Food and Public Distribution
028. Corporate Affairs
029. Serious Fraud Investigation Office
030. Investor Education and Proection Fund
031. Culture
032. Earth Sciences
033. India Meteorological Department
034. India Meteorological Department, Pune
035. India Meteorological Department, Chennai
036. Agriculture Meteorology Division
037. National River Conservation Directorate
038. Finance
039. Central Pension Accounting Office
040. Controller General of Accounts
041. Department of Company Affairs
042. Department of Income Tax
043. Department of Revenue
044. Department of Service Tax
045. Food Processing Industries
046. Health & Family Welfare
047. Dept. of Indian Systems of Medicines & Homeopathy
048. Heavy Industries & Public Enterprises
049. Department of Heavy Industry
050. Department of Public Enterprises
051. Housing and Urban Poverty Alleviation
052. Human Resource Development
053. Department of Women and Child Development
054. Central Hindi Directorate
055. Information and Broadcasting
056. Directorate of Field Publicity
057. Directorate of Film Festivals
058. Films Division
059. Press Information Bureau
060. Publications Division
061. Song and Drama Division
062. Labour and Employment
063. Director General of Employment and Training
064. Directorate General of Factory Advice Service and Labour Institutes
065. Directorate General of Mine Safety
066. Labour Bureau
067. Law and Justice
068. Micro, Small and Medium Enterprises
069. Development Commissioner, M,S & M Industries
070. Mines
071. Minority Affairs
072. New and Renewable Energy Sources
073. Overseas Indian Affairs
074. Panchayati Raj
075. Personnel, Public Grievances & Pensions
076. Department of Administrative Reforms and Public Grievances
077. Petroleum & Natural Gas
078. Directorate General of Hydrocarbons
079. Power
080. Railways
081. Road Transport and Highways
082. Department of Road Transport and Highways
083. Rural Development
084. Department of Drinking Water Supply
085. Department of Land Resources
086. Department of Rural Development
087. Department of Biotechnology
088. Department of Science and Technology
089. Department of Scientific and Industrial Research
090. National Information System for Science Technology
091. India Meteorological Department
092. Directorate General of Shipping
093. Mercantile Marine Department
094. Social Justice and Empowerment
095. Chief Commissioner for Disabilities
096. Statistics and Programme Implementation
097. Department of Statistics (n.o)
098. Steel
099. Textiles
100. Development Commissioner for Handicrafts
101. Development Commissioner for Handlooms
102. Office of Jute Commissioner
103. Office of Textile Commissioner
104. Tourism
105. Tribal Affairs
106. Urban Development
107. Directorate of Estates
108. Directorate of Printing
109. Department of Publication
110. Water Resources
111. Women and Child Development
112. Youth Affairs and Sports

How BJP got majority in Maharashtra


महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी ने ध्वनिमत से विश्वास हासिल करने का दावा किया है. नवनिर्वाचित स्पीकर ने बैलट वोट की बजाय ध्वनि मत को तरज़ीह दी. पार्टी ने इसका फायदा उठाते हुए विश्वासमत हासिल कर लिया. लेकिन इससे कई सवाल उठ खड़े हुए. फडनवीस के 'विश्वास' पर उंगली
अब हम बताते हैं वो दस वजहें, जिनसे इस विश्वासमत पर अविश्वास हो रहा है...
1. सबसे पहले तो स्पीकर को बैलट की बजाय ध्वनिमत का सहारा लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह एक नई सरकार के विश्वास का मामला था. अमूमन ऐसा प्रावधान बिल वगैरह पारित कराने में होता है, लेकिन विश्वास हासिल करते समय स्पीकर ध्वनिमत का सहारा लेने दें, ऐसा शायद ही कभी सुना गया होगा.
2. ध्वनिमत में सबसे बड़ी बात यह होती है कि यह पता करना कि कितने लोग पक्ष में हैं और कितने विपक्ष में, बहुत मुश्किल है. वहां भी विधानसभा में शोर-शराबा हो रहा था. ऐसे में महज विधायकों की आवाज सुनकर यह कह देना कि फलां के पक्ष में ज्यादा सदस्य हैं, उचित नहीं होगा.
3. बीजेपी के पास बहुमत नहीं है और पार्टी के साथ 144 विधायक नहीं हैं, यह बात पार्टी भी मान रही है. अनेक प्रयासों के बाद वह 137 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई है. ऐसे में यह कहना कि उसके पास बहुमत है, गलत होगा.
4. बीजेपी को बाहर से समर्थन दे रही एनसीपी के सदस्य अगर वॉक आउट कर जाते, तो भी बात बन जाती. वे भी वहां बैठे हुए थे. क्या उन्होंने इस पर बिल्कुल चुप्पी साध ली थी?
5. अगर स्पीकर को ध्वनिमत का ही सहारा लेना था, तो उन्होंने पक्ष और विपक्ष में बंटवारा क्यों नहीं करवाया? इससे स्थिति स्पष्ट हो जाती कि कितने सदस्य साथ हैं और कितने नहीं.
6. विश्वास प्रस्ताव रखने में इतनी जल्दबाजी की गई कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिले. विधानसभा के स्पीकर को यह अधिकार तो है, लेकिन ऐसा करना नैतिक दृष्टि से कितना उचित है, यह सोचना होगा.
7. स्पीकर ने शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे को विश्वास मत के पहले विपक्ष के नेता का पद क्यों नहीं दिया? विश्वास मत मिलने के तुरंत बाद उन्हें विपक्ष का नेता बना देने से संदेह गहरा जाता है कि उनके मन में कुछ चल रहा था.
8. एनसीपी ने हालांकि सदन के बाहर यह एलान किया था कि पार्टी बीजेपी का समर्थन करेगी, उसने सदन में ऐसा कुछ नहीं किया और स्पीकर को इस बात की विधिवत सूचना भी नहीं दी.
9. स्पीकर ने अपना चुनाव होते ही तुरंत विश्वास प्रस्ताव जितनी तेजी से रखा और वह भी सिर्फ एक पंक्ति का, वह भी अजीब-सा था. इतनी जल्दी और हड़बड़ी में उन्होंने यह किया कि दूसरी पार्टी के नेता समझ भी नहीं पाए.
10. इस पूरे एपिसोड में सिर्फ राजनीति दिखाई देती है. विश्वास मत के पारित होने की घोषणा इतनी जल्दबाजी में क्यों कर दी गई कि किसी को कुछ पता ही नहीं चला. नैतिकता की दृष्टि से यह उचित नहीं दिखता. कुल मिलाकर यह विश्वास प्रस्ताव से ज्यादा एक तरह की बाजीगरी दिखती है.

Wednesday, November 5, 2014

This is what delivered in 49 days.

Arvind Kejriwal
Dec 28: अरविन्द केजरीवाल ने रामलीला मैदान में दिल्ली के मुख्यमंत्री के शपथ ली
Dec 29: दिल्ली के जल बोर्ड के चीफ का ट्रान्सफर कर दिया गया
Dec 30: नियमित कनेक्शन उपभोक्ताओ को 700 लीटर निशुल्क जल प्राप्ति की घोषणा की गयी
Dec 31: 400 यूनिट से अधिक वाले विधुत उपभोक्ताओ को 50% सब्सिडी दी गयी
Jan 1: इलेक्ट्रिक बोर्ड की जाँच के लिए कैग ऑडिट का निर्देश दिया
Jan 2: आप सरकार ने ‘ट्रस्ट वोट ‘ जीता
Jan 3: आप MLA एम एस धीर को असेंबली स्पीकर चुना गया
Jan 4: दिल्ली विश्व विद्यालय में दिल्ली के विद्यार्थियो के लिए कोटा देने का सिफारिश, केजरीवाल ने सुरक्षा और डुप्लेक्स घर लेने से मना कर दिया
Jan 5:आप के कार्यकर्ताओ ने दिल्ली के सभी सरकारी अस्पतालों का निरिक्षण करना आरम्भ किया तथा सुविधाओ में आपूर्ति सम्बंधित रिपोर्ट तैयार की
Jan 6: 800 दिल्ली जल बोर्ड के 800 कर्मचारीयो का ट्रान्सफर .
Jan 7: नर्सरी में दाखिले के लिए हेल्प लाइन नंबर सेवा शुरू
Jan 8:सरकारी स्कूल के लिए इन्फ्रास्टक्चर ऑडिट गठित
Jan 8: भ्रष्टाचार विरोधी हेल्प लाइन नंबर का शुभारम्भ
Jan 10: बिजली कटौती के लेकर हेल्पलाइन नंबर सेवा शुरू
Jan 10: विधुत बिलों के खिलाफ आन्दोलन में भाग लेने वालो के लिए बिजली की दरो में माफ़ी
Jan 11: केजरीवाल का जनता दरबार शुरू
Jan 16:सोमनाथ भारती और राखी बिड़ला का देर रात्रि छापा अभियान शूरू
Jan 18: केजरीवाल के मंत्रियो द्वारा रात्री में निगरानी
Jan 19: राखी बिड़ला और समर्थको ने खिड़की एक्सटेंशन में अनैतिक कार्य हेतु छापा मारा, जो बाद में सही साबित हुआ
Jan 20: दिल्ली पुलिस के सहयोग न करने के कारण केजरीवाल रेल भवन में धरने पर बैठे
Jan 26 :बिन्नी को आप विरोधी मुहीम के चलते बाहर का रास्ता दिखाया गया
Jan 31:सरकार ने जांच में सहायता न करने वाली कंपनियो का लाइसेंस निरस्त करने की धमकी दी
Feb 3: DERC ने लाइसेंस निरस्त करने के लिए सरकार से सिफारिश की asked to cancel licences of discoms.
Feb 6: राष्ट्रमंडल खेलों के ‘स्ट्रीट लाइट परियोजना में नए सिरे से जांच.
Feb 7: सलीमगढ़ बाईपास के निर्माण में वित्तीय अनियमितताओं की जांच.
Feb 8: केजरीवाल ने ‘जन लोकपाल विधेयक को अपनी मंजूरी के बाद भी केंद्र को न भेजने पर आपत्ति जताई .
Feb 10: दिल्ली जल बोर्ड में 3 घोटालो की जाँच
Feb 11: भारत में उत्पादित प्राकृतिक गैस की कीमत बढ़ाने के लिए मुकेश अंबानी, वीरप्पा मोइली और मिलिंद देवड़ा के खिलाफ केजरीवाल ने प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया |
तो ये थी सूची जो की मात्र 49 दिन में आप की सरकार ने लोगो को दी लेकिन इसमें कुछ ऐसी बातों का ज़िक्र नहीं जो आप के सत्ता में रहते हुई जैसे की
36000 पदों को नियमित किया गया,जिसमे अनियमित ड्राईवर,कंडेक्टर,शिक्षक,और ठेकेदार शामिल थे इन पदों को आप सरकार ने नियमित करने की सिफारिश की थी और इसके लिए एक समिति गठित की गयी थी जो की आम आदमी पार्टी के उपरांत प्रक्रिया में आई,इसी तरह नर्सरी स्कूल में दाखिलो को लेकर आप सरकार द्वारा चली गयी मुहीम भी आब रंग ला रही है और आप कार्यकर्ताओ ने लगभग 400 बच्चो के लिए आवेदन दे दिया है

रविश की कलम से……

रविश की कलम से……
नई दिल्ली: राजनीति मनमोहन देसाई की फिल्म की तरह है, जो फ्लैशबैक से शुरू होती है, जिसमें दो लड़के अपने परिवेश के बंधनों को तोड़कर भागते हैं और पुल से चलती रेल पर कूदते समय हवा में ही बड़े हो जाते हैं। पर्दे पर लिखा आता है 'इंटरमिशन'। फिल्म तो समाप्त हो जाती है, लेकिन हकीकत और अंतर्विरोध का जो ढांचा होता है, वह असली और पर्दे के जीवन पर बना रहता है, इसलिए हार और जीत किसी कहानी के मोड़ ज़रूर हो सकते हैं, मगर ज़रूरी नहीं कि इससे बुनियादी सवालों पर बहुत फर्क पड़ जाए। 2011-13 की दिल्ली ने जो उम्मीदें जगाईं थीं, वे अब कहां हैं। राजनीति को बदलने के सवाल गुलज़ार का गाना गा रहे होंगे - "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, एक सौ सोलह चांद की रातें, एक तुम्हारे कांधे का तिल, गीली मेंहदी की खुश्बू, झूठ-मूठ के वादे, वो भिजवा दो..." कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली उस थियेटर से निकलकर 'हैप्पी न्यू ईयर' जैसी चतुर्थस्तरीय फिल्म देखने में मगन हो गई है, जहां नैतिकता का मतलब सिर्फ जीत है। चोर जीते, लेकिन इंडिया के लिए जीते। वैसे इस फिल्म ने कमाई के रिकॉर्ड भी बनाए हैं।
काला धन और भ्रष्टाचार का मुद्दा अब लतीफे में बदल गया है। लोकपाल का जुनून उस शामियाने की तरह उजड़ गया है, जिसके भीतर कुर्सी कहीं से आई थी और लाउडस्पीकर कहीं से। सब अपना-अपना सामान लेकर चले गए हैं। वित्तमंत्री सीएजी को सलाह देते हैं कि नीतियों के कई पक्ष हो सकते हैं। जो फैसला है, वह लिया जा चुका है, वह सनसनी न करें, हेडलाइन की भूख छोड़ दें। फिर सफाई आती है कि बात को संदर्भ से काटकर पेश किया गया, लेकिन यह नहीं बताया जाता कि वह बात क्या थी, जो कट-छंट गई। हमारे नेता ही संपादक हैं। कब संदर्भ समाप्त कर मुद्दे को महज़ नारे में समेट देते हैं और कब नारे को किनारे लगाकर संदर्भ समझने की अपील करने लगते हैं, इसका फैसला उन्हीं के पास सुरक्षित है। हर किसी के खाते में तीन लाख आएगा या नहीं, अब यह आक्रोश की जगह लतीफे का मामला बन गया है। जब पता नहीं था, तब संसद में बहस की मांग क्यों हुई, स्थगन क्यों हुए, यात्राएं क्यों निकाली गईं। वे दस्तावेज़ कहां से आए, जिनके आधार पर कहा गया कि देश में लाखों करोड़ का कालाधन है। रेडियो पर प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसी को पता नहीं कि काला धन कितना है, पर पाई-पाई लाएंगे, इसका भरोसा उन पर कीजिए। तो क्या भ्रष्टाचार का वह मुद्दा नकली था, तब क्यों नेता ऐसे बोल रहे थे कि किसी को पता नहीं था।
दो सवाल हैं। काला धन आने को लेकर, दूसरा भ्रष्टाचार मिटाने को लेकर। क्या ये दोनों सवाल इस कदर बेमानी हो चुके हैं कि अब इन पर सिर्फ लतीफे ही बनाए जा सकते हैं। अगर यही बात मनमोहन सिंह कहते कि उन्हें पता नहीं कि कितना काला धन है, तब 2013 का मीडिया और सोशल मीडिया उनके साथ क्या सलूक करता। अब किरण बेदी, बाबा रामदेव सब चुप हैं। सबने इस सवाल को सिर्फ एक व्यक्ति के भरोसे छोड़ दिया है। तब तो इनका सवाल कुछ और था कि भ्रष्टाचार के सवाल को किसी एक व्यक्ति या सरकार के भरोसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। यह काम सिर्फ और सिर्फ लोकपाल कर सकता है। क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि लोकपाल को लेकर वैसा आक्रोश अब भी है। ग्यारह महीने से लोकपाल नहीं है और अब इसे लेकर कोई बयान भी नहीं है। राज्यों में भ्रष्टाचार के सवाल पर तो अब करीब-करीब खामोशी-सी छा गई है। जैसे भ्रष्टाचार केंद्र सरकार ही खत्म करेगी और वह भी एसआईटी के ये दो जज, जो इस वक्त वैकल्पिक लोकपाल की तरह उम्मीद बनते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन इनका दावा भी अजीब है। एक साल में ठीक-ठाक पता कर लेंगे काले धन के बारे में। सवाल तो लोकपाल जैसे सिस्टम का था, जो इस महामारी से एक लड़ाई की शुरुआत करता।
इस आंदोलन ने राजनीति में कई नायक दिए। यह और बात है कि इनका नायकत्व किसी और नायक में विलीन हो गया। अब हर दूसरा-तीसरा 'टटपूंजिया आंदोलन' भी 'आज़ादी की दूसरी लड़ाई' कहा जाने लगा है। दिल्ली के ज्यादातर भ्रष्टाचार विरोधी नायकों ने अपनी-अपनी निष्ठाएं घोषित कर दी हैं, जिनके आधार पर इनकी चुप्पी और मुखरता तय हो रही है। तब तो 'न भ्रष्टाचार न, अबकी बार न...' एक उम्मीद टूटती थी तो एक अनशन आकर उसे संभाल लेता था। अब यह सब नौटंकी में बदल दिया गया है। जाने-अनजाने में एफएम रेडियो ने लोकतांत्रिक आयोजनों को प्रहसन में बदल दिया है।
2013 में दिल्ली भ्रष्टाचार के सवाल पर ठीक से अपना पक्ष तय नहीं कर पाई। जितना बीजेपी को पसंद किया, उतना ही आम आदमी पार्टी को। कांग्रेस को जो सज़ा मिली, उसे वही सज़ा देश भर में मिली। तब बीजेपी और आम आदमी पार्टी एक दूसरे से नहीं, बल्कि कांग्रेस से लड़ रहे थे। इस बार लड़ाई बदल जाएगी। बीजेपी और आम आदमी पार्टी आमने-सामने हैं और इस लड़ाई में कांग्रेस अपने लिए कुछ जगह खोज रही है। लेकिन क्या वाकई आम आदमी पार्टी सामने-सामने से बीजेपी पर वार करेगी। बीजेपी नहीं, मोदी पर वार करेगी। मीडिया, सोशल मीडिया के सहारे इस लड़ाई को व्यक्तिगत बना दिया जाएगा। यही वास्तविकता है। पर क्या दिल्ली खुद को इस व्यक्तिवादी राजनीति से निकलकर सिस्टम से जुड़े मुद्दों पर कोई समझदारी कायम करेगी। बहस की दिशा को बदल पाएगी।
क्या आम आदमी पार्टी जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के सवाल पर उस भावुकता को दोबारा रच पाएगी, जो उसने उन दो सालों में किया था। आम आदमी पार्टी अपनी स्थापना का चुनाव उस मुद्दे के सहारे लड़ेगी, जिसके आधार पर वह कायम हुई थी। 2013 और 2014 की दिल्ली काफी बदल गई है। दिल्ली का चुनाव इस बार भारतीय राजनीति की दिशा तय कर देगा। वह यह कि अब राजनीति वही होगी, जो मध्यमवर्ग चाहेगा। वह इस वक्त राजनीति को टीवी सीरियल की तरह देख रहा है, जहां नए-नए कपड़ों में सजे किरदार उसे रुलाते हैं, तो कभी हंसाते हैं। इस चुनाव में दिल्ली के लिए कुछ नहीं है। जैसे उस चुनाव में दिल्ली के लिए कुछ नहीं था। आम आदमी पार्टी अब एक राजनीतिक दल में ढल चुकी है। अब उन नौसिखिये समाजसेवियों की फौज नहीं रही, जो राजनीति को बदलने के लिए निकले थे। उसके राजनीतिक अंतर्विरोध भी सामने आते रहते हैं। जिसके भीतर राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई लोकसभा की हार के बाद शुरू होकर थम तो गई थी, लेकिन इस चुनाव के बाद फिर उभरेगी। दिल्ली का फैसला बताएगा कि भविष्य में नई पार्टी के लिए राजनीतिक स्पेस क्या रहेगा। कभी खत्म नहीं होगा, मगर उस स्पेस को लेकर नए तरह के सबक ज़रूर कायम होंगे। फिलहाल एक बात आम आदमी पार्टी के पक्ष में ज़रूर जाती है कि उसके विधायक नहीं टूटे। किसी ने अपनी पार्टी से बाहर से जाकर स्टैंड लेते हुए इस्तीफा देकर बीजेपी के लिए स्पेस नहीं बनाया। देखते हैं कि अरविंद केजरीवाल अपने उन मुद्दों को छोड़ देते हैं या उन्हीं के सहारे फिर मैदान में उतरते हैं या नहीं।
यह चुनाव जितना नरेंद्र मोदी का नहीं होगा, उतना अरविंद केजरीवाल का होगा। इस बीच जनता उन्हें कुछ दिन सरकार में और बहुत दिन विपक्ष में देख चुकी है। जिस भावुकता और जादू के निर्माण करने का सोशल मीडियाई संसाधन केजरीवाल की टीम ने जुटाया था, उसे बीजेपी ने बड़े पैमाने पर अपना लिया है। यह चुनाव दो दलों के संसाधनों के प्रदर्शन के टकराव का भी चुनाव होने जा रहा है। संसाधनों के मामले में आम आदमी पार्टी बीजेपी से हमेशा कमज़ोर रहेगी, इसलिए 'आप' का असली इम्तहान शुरू होता है अब। दिल्ली जी, लॉक किया जाए - अमिताभ की शैली में बोलें तो। देखते हैं, दिल्ली किसे लॉक करती है।
कई लोग कह रहे हैं कि यह चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए 'करो और मरो' का चुनाव होगा। उनका आकलन है कि अगर विपक्ष लायक बनी तो पार्टी खत्म हो जाएगी। कोई पार्टी विपक्ष में आकर खत्म कैसे हो जाती है। क्या महाराष्ट्र में 15 साल विपक्ष में रहकर बीजेपी खत्म हो गई थी। क्या केंद्र में 10 साल सत्ता से बाहर रहकर बीजेपी खत्म हो गई थी। लेकिन भारतीय राजनीति में अपने लिए दिल्ली जैसा छोटा संदर्भ और लक्ष्य चुनकर अरविंद केजरीवाल ने भी खुद को इन सवालों के घेरे में नहीं ला दिया है। जब दिल्ली नहीं तो फिर कहां। इस चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी का भविष्य भी दांव पर होगा। मेरा अपना मानना है कि हिन्दुस्तान की जनता भ्रष्टाचार के सवाल पर ईमानदार नहीं है। जो इस मुद्दे को लेकर आग में कूदेगा, वह जलकर मर जाएगा। जनता भ्रष्टाचार सिस्टम की लाभार्थी है। उसे अपनी अन्य निष्ठाएं भ्रष्टाचार से ऊपर लगती हैं। वह भ्रष्टाचार के साथ जीना सीख चुकी है। उसे इस मुद्दे और देश की राजनीति से 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' हो गया है। जो उत्पीड़क है, उसी से प्यार हो गया है उसे। अगर अरविंद इस धारणा को गलत साबित कर देते हैं तो आम आदमी पार्टी मोदी के वर्चस्ववादी राजनीति और युग में फिर से उम्मीद बनकर ज़िंदा हो जाएगी। दांव तो सिर्फ 'आप' का है। बचे रहने का और मिट जाने का। यह चुनाव अब 'आप' का है, जनता का नहीं। जो अरविंद कहा करते थे कि चुनाव जनता का है, वही जीतेगी या वही हारेगी।
ज़रा सोचिए। बीजेपी की जीत हुई तो नरेंद्र मोदी का कैसा बखान होगा। मोदी तो जीतते ही आ रहे हैं। उनके फैलाए वृत्तांतों के अनुसार ही बहसें चल रही हैं। बाकी दल और नेता अपने अंतर्विरोधों से भाग रहे हैं तो मोदी रोज़ एक नया अंतर्विरोध पैदाकर के भी बच निकल जा रहे हैं। विरोधी कन्फ्यूज हैं कि मोदी पर हमला करें या नहीं। मोदी को इस तरह का कन्फ्यूज़न नहीं है। वह जब चाहते हैं, जिस पर चाहते हैं, हमले करते हैं। वह एक नहीं, हज़ार तीर लेकर उतरते हैं। बिना देखे दाएं-बाएं छोड़ते रहते हैं। हालांकि उनका हर कदम योजना के हिसाब से ही होता है। टीवी और मीडिया को सिर्फ और सिर्फ एक ही योद्धा लड़ता हुआ दिखता है और इस दुनिया में जो दिखता है, वही बिकता है। क्या अरविंद केजरीवाल मोदी पर उस तरह से सीधे टारगेट कर पाएंगे। बीजेपी उन्हीं के सहारे तो मैदान में उतरेगी। कांग्रेस के लिए भी नए नेतृत्व को आज़माने का मौका है। क्या वह कुछ खड़ी हो पाएगी। शीला दीक्षित के सहारे मैदान में उतरेगी या फिर कोई और नया नेता आएगा।
यह भी ध्यान रखना होगा कि क्या इस बार भी दिल्ली का चुनाव किसी राजनीतिक बदलाव की चाहत के लिए होगा। दिल्ली ने राजनीति को बदलने का सपना छोड़ दिया है। अगर दिल्ली में बदलाव की चाहत होती तो वह बवाना और त्रिलोकपुरी की घटना पर इतनी खामोश न होती। वह इन घटनाओं के समर्थन में भले मुखर नहीं है, लेकिन लोगों का मौन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पूर्ण हो चुका है। चूंकि सेकुरलिज्म की तरह यह भी एक बैड वर्ड है, इसलिए दिल्ली का नफ़ीस तबका इसका प्रदर्शन नहीं करेगा। किन्हीं और बहानों के सहारे इस पर चुप रहेगा।
बवाना की पंचायत अगर यूपी में होती तो अब तक कई सवाल अखिलेश सरकार पर दागे जा चुके होते कि सपा बीजेपी से मिली हुई है, ताकि इस ध्रुवीकरण का लाभ दोनों मिलकर उठा लें। दिल्ली में जवाबदेही के सवाल पर वैसी आक्रामकता गायब है। क्यों किसी ने नहीं कहा कि जिस दिल्ली के लाल किले से 10 साल तक सांप्रदायिकता पर रोक लगाकर देशसेवा में जुटने का आह्वान किया गया, उसी दिल्ली में किसकी इजाज़त से महापंचायतें हो रही हैं। क्यों तनाव हो रहे हैं। क्यों नहीं ऐसे वक्त में प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से डांट लगाते हैं कि बंद कीजिए। मेरी नज़र है ऐसी घटनाओं पर। वह भी एक ऐसे प्रधानमंत्री से उम्मीद तो की जा सकती है, जिनका खासा समय मीडिया के माध्यमों में गुज़रता है। आम आदमी पार्टी ने भी सांप्रदायिकता के खिलाफ स्टैंड लेकर यात्राएं नहीं निकालीं। घर-घर जाकर लोगों से पर्चे नहीं बांटे। कांग्रेस और 'आप' ने मीडियाई बयान देने की औपचारिकता भर पूरी की। वर्ना कोई बवाना के समानांतर सौहार्द पंचायत करने की भी सोच सकता था। सब इस सवाल पर कन्फ्यूज़ हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि लोकसभा की तरह सेकुलरिज़्म के बैड वर्ड बन जाने का नुकसान न उठाना पड़े। यही तो राजनीति है। नुकसान उठाकर भी आप अपने आदर्शों को नही छोड़ें। लेकिन तब क्या करेंगे, जब सामने वाला हर तरह के आदर्शों की तिलांजलि देकर जीतने पर आमादा है। चुनावी राजनीति की यही तो सीमा है। हर किसी को इसमें फंस जाना पड़ता है। नैतिकता टीवी स्टुडियो में बहस के लिए बची रह जाती है।
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