दोस्तों,
अभी हाल फिलहाल में ही आम आदमी पार्टी द्वारा लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीट पर लड़ने का ऐलान किया गया है.....इस घोषणा पर विभिन्न संघटनों और व्यक्तियों की अलग अलग किस्म की प्रतिक्रिया हुई है...”आप” के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की राय भी इस विषय पर थोडा बंटी हुई है कि पार्टी को लोकसभा में इतनी ज्यादा सीट पर लड़ना चाहिए या नहीं...
हम इस विषय पर अगर आत्म-मंथन करते हैं तो निम्नलिखित मुद्दे निकल कर आते हैं---
१.पहली बात जो कि बीजेपी के समर्थक कहते है कि वोट बंटेगा और बहुत सी सीट जो “मोदी-लहर” में बीजेपी जीती हुई मान रही है वो कहीं कांग्रेस के पास ना चली जाये....इस तरह से जनता का एक-मुश्त “कांग्रेस-विरोधी” गुस्सा कहीं बिखर ना जाये और फिर से त्रिशंकु संसद की त्रासदी इस देश को ना झेलनी पड़ जाये....
प्रथम परिदृश्य------अब अगर ऐसी परिस्थिति बनती है कि “आप” तकरीबन 125-175 सीट जीत जाती है तो वो किसके समर्थन से सरकार बनाएगी ?
क्या कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, जे.डी.यू., बीजद, द्रमुक जैसे अन्य दलों का समर्थन ले कर “सेकुलरिज्म” के नाम पर “आप” सरकार बनाने को तैयार होगी ?
क्या ऐसे में दिल्ली की तरह “अल्पमत” की सरकार बोलकर बाहर से समर्थन लिया जा सकेगा ?
क्या राष्ट्रीय परिदृश्य में इतनी सारी भ्रष्ट और अपराधी-छवि वाली पार्टिओं के साथ मिलकर एक अस्थाई और अस्थिर सरकार बनाना व्यवहारिक होगा ?
या फिर इस बार बीजेपी या उसके सहयोगी दलों के साथ मिलकर “आप” दिल्ली की भांति फिर वही “अल्पमत” वाली सरकार बनाएगी ?
दोनों ही स्थिति में ये बहुत मुश्किल होगा क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर केवल बिजली, पानी, भ्रष्टाचार, सड़क, स्कुल, अस्पताल के मुद्दों पर समर्थन लेकर काम नहीं चल सकता.....दिल्ली में इन मुद्दों पर सरकार बनाई जा सकी है पर केंद्र में ये संभव नहीं क्योंकि वहां आतंकवाद, तुष्टिकरण, आरक्षण, कश्मीर, धारा 370, धारा 377, विदेश नीति, नक्सलवाद, नए राज्यों के गठन,राज्यों के अधिकार, जन लोकपाल, पुलिस और न्यायिक सुधार, महंगाई, जमाखोरों पर लगाम, पेट्रोल/ डीजल/ गैस के दामों पर निर्णय, स्वास्थ्य सेवाएं (जो कि राज्य का विषय भी है), नुक्लिअर शक्ति, FDI, ठेका प्रणाली जैसे अनगिनत मुद्दे हैं जिन पर केवल केंद्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों की सलाह और कुछ मामलों पर अनुमति भी चाहिए होगी...तो ऐसे में “अल्पमत” की सरकार कैसे निर्णय ले पायेगी ये बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है.....
दूसरा परिदृश्य--- अगर कांग्रेस के पास 125-150 तक सीट आती है बीजेपी के पास 175-225 सीट आती हैं और “आप” के पास 22-75 सीट- तो “आप” किसका समर्थन करेगी ? क्या तब “आप” मुद्दों पर ही सही पर क्या बीजेपी गठबंधन को बाहर से समर्थन देगी ? ये बात अभी चुनाव पूर्व ही तय की जानी चाहिए क्योंकि कल चलकर अगर “साम्प्रदायिक ताकतों” को रोकने के लिए “आप” फिर से कांग्रेस, सपा, बसपा का साथ देकर उनकी सरकार बनवाती है तो ये हिंस्दुस्तान के आवाम के लिए बहुत बड़ा धोखा होगा....
तब सपा, बसपा, राजद, द्रमुक, एनसीपी, नेशनल कांफ्रेंस में और “आप” में क्या फर्क रह जायेगा जो पिछले दस सालों से लगातार “छदम सेकुलरिज्म” के नाम पर कांग्रेस की खुली और नंगी लूट का समर्थन कर रहे है ? और तब क्या उस स्थिति में सबसे बड़ा गठबंधन बना कर उभरे बीजेपी और सहयोगियों को सत्ता से दूर रखना राष्ट्रीय स्तर पर मुमकिन और जायज होगा ?
क्या पार्टी को अभी से तय नहीं कर लेना चाहिए कि वो बीजेपी और कांग्रेस के बराबर-बराबार सीट पाने वाली स्थिति में क्या रुख अख्तियार करेगी ? “आप” को वोट देने वालों को ये जानने का अधिकार तो है ही...
२.इस पूरे खेल में कब तक “अल्पमत” वाली सरकार बनायीं या बनवाई जा सकती है ? दिल्ली की बात कुछ और है- ये एक राज्य हैं और यहाँ मुकाबला त्रिकोणीय है और यहाँ फिर से चुनाव हो भी जायें तो बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला...पर यही बात राष्ट्रीय परिपेक्ष में लागू नहीं होती है......
हर अगली आने वाली साँस पर टिकी सरकार को कैसे संभाला जायेगा ? क्या पूरे देश में फिर से चुनाव करवाना इतना आसन होगा ? करोड़ों- अरबों रूपए खर्च होंगे, फिर से तक़रीबन दो महीने के लिए “आचार-संहिता” लगाई जाएगी जिससे पूरे देश का काम-काज ठप्प हो जायेगा, लाखों सुरक्षाकर्मियों और सरकारी कर्मचारिओं को फिर से चुनाव ड्यूटी में लगाना पड़ेगा और इतना सब करने के बाद भी क्या गारन्टी है कि फिर से त्रिशंकु सरकार ना बन जाये ? क्या देश इस पूरे चुनावी ताम-झाम के लिए तैयार है ?
३.और तजुर्बा भी एक बहुत बड़ी चीज़ है.....अभी महज सिर्फ एक राज्य में “आप” की सरकार है...वो भी महज चंद कुछ रोज़ पुरानी....सभी विधायक अभी नए है और बहुतों को शासन-प्रशासन चलाने का बिलकुल भी इल्म और तजुर्बा नहीं है... दिल्ली में चूँकि मुद्दे साफ़ हैं और “गठबंधन धर्म” की भी कोई मज़बूरी नहीं तो यहाँ सरकार अपना काम आसानी से कर सकती है.....और इसके साथ-साथ दिल्ली चूँकि छोटा सा राज्य है तो वहां अरविन्द और मनीष के नेतृत्व में सरकार चलाना मुश्किल नहीं होगा और हमारे नेता बढ़ते वक़्त के साथ धीरे-धीरे काम करना सीख भी जायेंगे.....पर राष्ट्रीय स्तर पर क्या ये आज की तारीख़ या आने वाले कुछ महीनों में संभव है ?
४.क्या दिल्ली में जिस तरीके से अलग अलग राज्यों से लोगों ने आकर अपना योगदान दिया था और अपनी नौकरी, घर-बार छोड़कर महीनों दिल्ली में रहकर दिन रात घर घर जा कर लोगों का समर्थन माँगा था- क्या ऐसा दोहराना महज अगले चार महीने में संभव है ? क्या बाकि हिन्दुस्तान में हमारे पास दिल्ली की तरह चप्पे-चप्पे पर फैला निस्वार्थ वालंटियर्स का जाल बिछा है जो पार्टी के लिए पूरे संसदीय क्षेत्र में घर-घर जाकर प्रचार कर सके, बैनर लेकर सड़कों पर खड़ा हो, ऑटो के पीछे पोस्टर लगाये, वोटर लिस्ट बनवाये और ये सब भी अपने खर्च पर रह कर ?
क्या हम फिर से इतने बड़े पैमाने पर बाहर से वालंटियर्स को बुलवा सकते हैं हर लोकसभा सीट पर जिस पर हम लड़ रहे हैं ? समर्थक और कार्यकर्ता में जमीन-आसमान का फर्क होता है जनाब.......क्या हमारे पास हर जगह इतने निस्वार्थ कार्यकर्ता हैं ? और जब तक़रीबन सात-आठ महीने की बहुत ही ज्यादा कड़ी मेहनत के बाद भी हम दिल्ली में पूर्ण समर्थन हासिल नहीं कर पाए और तक़रीबन एक तिहाई वोट ही अपने पक्ष में ले पाएं हैं तो इतने बड़े देश में बड़े-बड़े लोकसभा क्षेत्रों में पार्टी की क्या उम्मीदें हैं ?
५.क्या गारन्टी है कि जो लोग दिल्ली की जीत के बाद “आप” से जुड़े हैं वो निस्वार्थ भावना के साथ जुड़े हैं ? हरियाणा में नेतागिरी के चक्कर में बहुत से लोग “आप” से जुड़ रहे हैं....बहुत लोग जो पहले “आप” पर उँगली उठाते थे आज टोपी पहन कर “आप” को टोपी पहना रहे हैं....अब थोडा-बहुत भी नेतागिरी का शौक रखने वाले लोगों को लगने लगा है कि इस नयी पार्टी “आप” में भविष्य बनाया जा सकता है....
जिन के पास आज खाने –पीने या परिवार पालने की समस्या नहीं है वो बड़े बड़े लेखक, पत्रकार, उद्योगपति, वकील, बैंकर, मैनेजर, कलाकार, खिलाडी आदि दिल्ली की जीत के बाद “आप” में आकर बड़े पद और टिकट की चाह रख रहे हैं.....पैसे की बल पर वो कुछ सौ या हज़ार लोगों का समर्थन भी ला सकते हैं....पर क्या हमारे पास दिल्ली की तरह वालंटियर्स का जमीनी स्तर का जाल बिछा है जो हमें भूसे के ढेर में से सुई निकालने में मदद करे...?
६. क्या हम जनता की उम्मीदों पर एक दम से खरा उतरने के लिए तैयार हैं ? क्या हमारे सारे विधायक अभी पूरी तरह से परिपक्व हैं ? क्या राखी बिडला के गाडी के शीशे और धर्मेन्द्र कोली के विवादस्पद जलूस जैसे मुद्दों को “आप” नज़रंदाज़ कर सकती है ? जैसा आज हुआ है दिल्ली के जनता दरबार में कि छत से खड़े होकर लोगों की समस्याएं सुननी पड़ी, तो क्या हम अभी इतने परिपक्व और इतने तैयार हैं इस पूरे मुल्क के आवाम की आशाओं को एकदम से एकसाथ पूरा करने के लिए ? क्या हमें अपने सुझाये स्वराज माडल को पहले जमीनी स्तर पर उतारकर और उसमे यथार्थवादी सुधार करके उन्हें और बेहतर नहीं बनाया जाना चाहिये ?
हम अपने दिल और आत्मा से चाहते हैं कि अरविन्द जी इस देश के प्रधान मंत्री बने और कई सालों तक इस मुल्क की खिदमत दिलो-जान से करें....ये हर “आप” से जुड़े समर्थक और कार्यकर्ता का सबसे बड़ा सपना है...पर क्या जल्दबाजी में हम कहीं अति-उत्साहित तो नहीं हो रहे ? कहीं ऐसा ना हो कि शिशु के जन्म देने की जल्दी में हम उसे नौ महीने से पहले ही जन्म दिलवाने का हठ करके उस शिशु के जीवन को ही खतरे में ना डाल दें ? कहीं ऐसा तो नहीं कि एक बहुत होनहार पांचवी के छात्र को अति-उत्साह में बाहरवीं की परीक्षा का बोझ डालकर उसे फेल ही कर दिया जाए...
और अंत में- बेहतर यही रहेगा कि अभी “आप” दिल्ली में स्वराज का एक बेहतरीन मॉडल बना कर और उसे चला कर दिखाए....फिर उसे किसी को कुछ साबित नहीं करना पड़ेगा....”आप” का काम बोलेगा पूरे हिन्दुस्तान में...बाकि राज्यों के लोग तरसेंगे “आप” जैसा शासन पाने के लिए...खड़ा करे मजबूत और निस्वार्थ संगठन हर राज्य में...परखे लोगों को उनके काम, उनके आचरण, उनके व्यवहार और उनकी क्षमता के हिसाब से ताकि हर राज्य में बेहतरीन नेताओं की एक श्रृंखला खड़ी की जा सके......
एक के बाद एक राज्य को जीतकर “आप” अपनी उपस्थिति भारतीय राजनीती में मजबूती से दर्ज करवाती रहे और फिर पांच साल बाद के लोकसभा चुनावों में अपनी धमाकेदार एंट्री करे...तब तक अगर बीजेपी की सरकार हुई केंद्र में तो तब तो वो पांच साल तक राज कर भी चुकी होगी और मोदी के काम के हिसाब से हम जनता को बता भी सकेंगे कि “आप” इससे भी बेहतर भारत का निर्माण करने में सक्षम हैं...
अच्छा होगा कि “आप” कुछ चुनिन्दा लोकसभा क्षेत्रों (30-40 सीट) में ही बाकि पार्टिओं के बड़े-बड़े नेताओं और भ्रष्ट मंत्रिओं के खिलाफ चुनाव लड़कर उन्हें ढंग से हराए और उन्हें चुनावी धूल चटाकर जमीनी हकीकत से रूबरू करवाए...इससे “आप” की ताक़त का अहसास भी बाकि पार्टिओं और देश के लोगों को हो जायेगा...ये कुछ सीट ही भारतीय राष्ट्रीय राजनीती में "आप" की इमारत के लिए मजबूत नींव का काम करेंगी जिसके बल पर 2019 में एक भव्य राजनैतिक इमारत का निर्माण किया जा सकता है...
अश्वमेध यज्ञ का घोडा इतनी जल्दी नहीं छोड़ा जाता भाई, पहले कुछ राज्यों पर परचम तो लहरा कर ही चक्रवर्ती बना जा सकता है....
अरे, अभी अभी मेरे कानों में मेरी माँ की आज दोपहर की उसकी एक बात फिर गूंज उठी---- ठंडा करके नहीं खा सकते क्या ? जल्दबाजी में गरम –गरम खाने की कोशिश करोगे तो मुँह जलेगा ही..
जगजीत सिंह साहब की एक ग़ज़ल आज बहुत याद आ रही है----
“प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है”.....................
जय हिन्द !! वन्दे मातरम !!
डॉ राजेश गर्ग.
(कृपया अपनी बात को तर्क सहित रखिये- चाहे विरोध हो या समर्थन )...
अभी हाल फिलहाल में ही आम आदमी पार्टी द्वारा लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीट पर लड़ने का ऐलान किया गया है.....इस घोषणा पर विभिन्न संघटनों और व्यक्तियों की अलग अलग किस्म की प्रतिक्रिया हुई है...”आप” के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की राय भी इस विषय पर थोडा बंटी हुई है कि पार्टी को लोकसभा में इतनी ज्यादा सीट पर लड़ना चाहिए या नहीं...
हम इस विषय पर अगर आत्म-मंथन करते हैं तो निम्नलिखित मुद्दे निकल कर आते हैं---
१.पहली बात जो कि बीजेपी के समर्थक कहते है कि वोट बंटेगा और बहुत सी सीट जो “मोदी-लहर” में बीजेपी जीती हुई मान रही है वो कहीं कांग्रेस के पास ना चली जाये....इस तरह से जनता का एक-मुश्त “कांग्रेस-विरोधी” गुस्सा कहीं बिखर ना जाये और फिर से त्रिशंकु संसद की त्रासदी इस देश को ना झेलनी पड़ जाये....
प्रथम परिदृश्य------अब अगर ऐसी परिस्थिति बनती है कि “आप” तकरीबन 125-175 सीट जीत जाती है तो वो किसके समर्थन से सरकार बनाएगी ?
क्या कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, जे.डी.यू., बीजद, द्रमुक जैसे अन्य दलों का समर्थन ले कर “सेकुलरिज्म” के नाम पर “आप” सरकार बनाने को तैयार होगी ?
क्या ऐसे में दिल्ली की तरह “अल्पमत” की सरकार बोलकर बाहर से समर्थन लिया जा सकेगा ?
क्या राष्ट्रीय परिदृश्य में इतनी सारी भ्रष्ट और अपराधी-छवि वाली पार्टिओं के साथ मिलकर एक अस्थाई और अस्थिर सरकार बनाना व्यवहारिक होगा ?
या फिर इस बार बीजेपी या उसके सहयोगी दलों के साथ मिलकर “आप” दिल्ली की भांति फिर वही “अल्पमत” वाली सरकार बनाएगी ?
दोनों ही स्थिति में ये बहुत मुश्किल होगा क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर केवल बिजली, पानी, भ्रष्टाचार, सड़क, स्कुल, अस्पताल के मुद्दों पर समर्थन लेकर काम नहीं चल सकता.....दिल्ली में इन मुद्दों पर सरकार बनाई जा सकी है पर केंद्र में ये संभव नहीं क्योंकि वहां आतंकवाद, तुष्टिकरण, आरक्षण, कश्मीर, धारा 370, धारा 377, विदेश नीति, नक्सलवाद, नए राज्यों के गठन,राज्यों के अधिकार, जन लोकपाल, पुलिस और न्यायिक सुधार, महंगाई, जमाखोरों पर लगाम, पेट्रोल/ डीजल/ गैस के दामों पर निर्णय, स्वास्थ्य सेवाएं (जो कि राज्य का विषय भी है), नुक्लिअर शक्ति, FDI, ठेका प्रणाली जैसे अनगिनत मुद्दे हैं जिन पर केवल केंद्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों की सलाह और कुछ मामलों पर अनुमति भी चाहिए होगी...तो ऐसे में “अल्पमत” की सरकार कैसे निर्णय ले पायेगी ये बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है.....
दूसरा परिदृश्य--- अगर कांग्रेस के पास 125-150 तक सीट आती है बीजेपी के पास 175-225 सीट आती हैं और “आप” के पास 22-75 सीट- तो “आप” किसका समर्थन करेगी ? क्या तब “आप” मुद्दों पर ही सही पर क्या बीजेपी गठबंधन को बाहर से समर्थन देगी ? ये बात अभी चुनाव पूर्व ही तय की जानी चाहिए क्योंकि कल चलकर अगर “साम्प्रदायिक ताकतों” को रोकने के लिए “आप” फिर से कांग्रेस, सपा, बसपा का साथ देकर उनकी सरकार बनवाती है तो ये हिंस्दुस्तान के आवाम के लिए बहुत बड़ा धोखा होगा....
तब सपा, बसपा, राजद, द्रमुक, एनसीपी, नेशनल कांफ्रेंस में और “आप” में क्या फर्क रह जायेगा जो पिछले दस सालों से लगातार “छदम सेकुलरिज्म” के नाम पर कांग्रेस की खुली और नंगी लूट का समर्थन कर रहे है ? और तब क्या उस स्थिति में सबसे बड़ा गठबंधन बना कर उभरे बीजेपी और सहयोगियों को सत्ता से दूर रखना राष्ट्रीय स्तर पर मुमकिन और जायज होगा ?
क्या पार्टी को अभी से तय नहीं कर लेना चाहिए कि वो बीजेपी और कांग्रेस के बराबर-बराबार सीट पाने वाली स्थिति में क्या रुख अख्तियार करेगी ? “आप” को वोट देने वालों को ये जानने का अधिकार तो है ही...
२.इस पूरे खेल में कब तक “अल्पमत” वाली सरकार बनायीं या बनवाई जा सकती है ? दिल्ली की बात कुछ और है- ये एक राज्य हैं और यहाँ मुकाबला त्रिकोणीय है और यहाँ फिर से चुनाव हो भी जायें तो बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला...पर यही बात राष्ट्रीय परिपेक्ष में लागू नहीं होती है......
हर अगली आने वाली साँस पर टिकी सरकार को कैसे संभाला जायेगा ? क्या पूरे देश में फिर से चुनाव करवाना इतना आसन होगा ? करोड़ों- अरबों रूपए खर्च होंगे, फिर से तक़रीबन दो महीने के लिए “आचार-संहिता” लगाई जाएगी जिससे पूरे देश का काम-काज ठप्प हो जायेगा, लाखों सुरक्षाकर्मियों और सरकारी कर्मचारिओं को फिर से चुनाव ड्यूटी में लगाना पड़ेगा और इतना सब करने के बाद भी क्या गारन्टी है कि फिर से त्रिशंकु सरकार ना बन जाये ? क्या देश इस पूरे चुनावी ताम-झाम के लिए तैयार है ?
३.और तजुर्बा भी एक बहुत बड़ी चीज़ है.....अभी महज सिर्फ एक राज्य में “आप” की सरकार है...वो भी महज चंद कुछ रोज़ पुरानी....सभी विधायक अभी नए है और बहुतों को शासन-प्रशासन चलाने का बिलकुल भी इल्म और तजुर्बा नहीं है... दिल्ली में चूँकि मुद्दे साफ़ हैं और “गठबंधन धर्म” की भी कोई मज़बूरी नहीं तो यहाँ सरकार अपना काम आसानी से कर सकती है.....और इसके साथ-साथ दिल्ली चूँकि छोटा सा राज्य है तो वहां अरविन्द और मनीष के नेतृत्व में सरकार चलाना मुश्किल नहीं होगा और हमारे नेता बढ़ते वक़्त के साथ धीरे-धीरे काम करना सीख भी जायेंगे.....पर राष्ट्रीय स्तर पर क्या ये आज की तारीख़ या आने वाले कुछ महीनों में संभव है ?
४.क्या दिल्ली में जिस तरीके से अलग अलग राज्यों से लोगों ने आकर अपना योगदान दिया था और अपनी नौकरी, घर-बार छोड़कर महीनों दिल्ली में रहकर दिन रात घर घर जा कर लोगों का समर्थन माँगा था- क्या ऐसा दोहराना महज अगले चार महीने में संभव है ? क्या बाकि हिन्दुस्तान में हमारे पास दिल्ली की तरह चप्पे-चप्पे पर फैला निस्वार्थ वालंटियर्स का जाल बिछा है जो पार्टी के लिए पूरे संसदीय क्षेत्र में घर-घर जाकर प्रचार कर सके, बैनर लेकर सड़कों पर खड़ा हो, ऑटो के पीछे पोस्टर लगाये, वोटर लिस्ट बनवाये और ये सब भी अपने खर्च पर रह कर ?
क्या हम फिर से इतने बड़े पैमाने पर बाहर से वालंटियर्स को बुलवा सकते हैं हर लोकसभा सीट पर जिस पर हम लड़ रहे हैं ? समर्थक और कार्यकर्ता में जमीन-आसमान का फर्क होता है जनाब.......क्या हमारे पास हर जगह इतने निस्वार्थ कार्यकर्ता हैं ? और जब तक़रीबन सात-आठ महीने की बहुत ही ज्यादा कड़ी मेहनत के बाद भी हम दिल्ली में पूर्ण समर्थन हासिल नहीं कर पाए और तक़रीबन एक तिहाई वोट ही अपने पक्ष में ले पाएं हैं तो इतने बड़े देश में बड़े-बड़े लोकसभा क्षेत्रों में पार्टी की क्या उम्मीदें हैं ?
५.क्या गारन्टी है कि जो लोग दिल्ली की जीत के बाद “आप” से जुड़े हैं वो निस्वार्थ भावना के साथ जुड़े हैं ? हरियाणा में नेतागिरी के चक्कर में बहुत से लोग “आप” से जुड़ रहे हैं....बहुत लोग जो पहले “आप” पर उँगली उठाते थे आज टोपी पहन कर “आप” को टोपी पहना रहे हैं....अब थोडा-बहुत भी नेतागिरी का शौक रखने वाले लोगों को लगने लगा है कि इस नयी पार्टी “आप” में भविष्य बनाया जा सकता है....
जिन के पास आज खाने –पीने या परिवार पालने की समस्या नहीं है वो बड़े बड़े लेखक, पत्रकार, उद्योगपति, वकील, बैंकर, मैनेजर, कलाकार, खिलाडी आदि दिल्ली की जीत के बाद “आप” में आकर बड़े पद और टिकट की चाह रख रहे हैं.....पैसे की बल पर वो कुछ सौ या हज़ार लोगों का समर्थन भी ला सकते हैं....पर क्या हमारे पास दिल्ली की तरह वालंटियर्स का जमीनी स्तर का जाल बिछा है जो हमें भूसे के ढेर में से सुई निकालने में मदद करे...?
६. क्या हम जनता की उम्मीदों पर एक दम से खरा उतरने के लिए तैयार हैं ? क्या हमारे सारे विधायक अभी पूरी तरह से परिपक्व हैं ? क्या राखी बिडला के गाडी के शीशे और धर्मेन्द्र कोली के विवादस्पद जलूस जैसे मुद्दों को “आप” नज़रंदाज़ कर सकती है ? जैसा आज हुआ है दिल्ली के जनता दरबार में कि छत से खड़े होकर लोगों की समस्याएं सुननी पड़ी, तो क्या हम अभी इतने परिपक्व और इतने तैयार हैं इस पूरे मुल्क के आवाम की आशाओं को एकदम से एकसाथ पूरा करने के लिए ? क्या हमें अपने सुझाये स्वराज माडल को पहले जमीनी स्तर पर उतारकर और उसमे यथार्थवादी सुधार करके उन्हें और बेहतर नहीं बनाया जाना चाहिये ?
हम अपने दिल और आत्मा से चाहते हैं कि अरविन्द जी इस देश के प्रधान मंत्री बने और कई सालों तक इस मुल्क की खिदमत दिलो-जान से करें....ये हर “आप” से जुड़े समर्थक और कार्यकर्ता का सबसे बड़ा सपना है...पर क्या जल्दबाजी में हम कहीं अति-उत्साहित तो नहीं हो रहे ? कहीं ऐसा ना हो कि शिशु के जन्म देने की जल्दी में हम उसे नौ महीने से पहले ही जन्म दिलवाने का हठ करके उस शिशु के जीवन को ही खतरे में ना डाल दें ? कहीं ऐसा तो नहीं कि एक बहुत होनहार पांचवी के छात्र को अति-उत्साह में बाहरवीं की परीक्षा का बोझ डालकर उसे फेल ही कर दिया जाए...
और अंत में- बेहतर यही रहेगा कि अभी “आप” दिल्ली में स्वराज का एक बेहतरीन मॉडल बना कर और उसे चला कर दिखाए....फिर उसे किसी को कुछ साबित नहीं करना पड़ेगा....”आप” का काम बोलेगा पूरे हिन्दुस्तान में...बाकि राज्यों के लोग तरसेंगे “आप” जैसा शासन पाने के लिए...खड़ा करे मजबूत और निस्वार्थ संगठन हर राज्य में...परखे लोगों को उनके काम, उनके आचरण, उनके व्यवहार और उनकी क्षमता के हिसाब से ताकि हर राज्य में बेहतरीन नेताओं की एक श्रृंखला खड़ी की जा सके......
एक के बाद एक राज्य को जीतकर “आप” अपनी उपस्थिति भारतीय राजनीती में मजबूती से दर्ज करवाती रहे और फिर पांच साल बाद के लोकसभा चुनावों में अपनी धमाकेदार एंट्री करे...तब तक अगर बीजेपी की सरकार हुई केंद्र में तो तब तो वो पांच साल तक राज कर भी चुकी होगी और मोदी के काम के हिसाब से हम जनता को बता भी सकेंगे कि “आप” इससे भी बेहतर भारत का निर्माण करने में सक्षम हैं...
अच्छा होगा कि “आप” कुछ चुनिन्दा लोकसभा क्षेत्रों (30-40 सीट) में ही बाकि पार्टिओं के बड़े-बड़े नेताओं और भ्रष्ट मंत्रिओं के खिलाफ चुनाव लड़कर उन्हें ढंग से हराए और उन्हें चुनावी धूल चटाकर जमीनी हकीकत से रूबरू करवाए...इससे “आप” की ताक़त का अहसास भी बाकि पार्टिओं और देश के लोगों को हो जायेगा...ये कुछ सीट ही भारतीय राष्ट्रीय राजनीती में "आप" की इमारत के लिए मजबूत नींव का काम करेंगी जिसके बल पर 2019 में एक भव्य राजनैतिक इमारत का निर्माण किया जा सकता है...
अश्वमेध यज्ञ का घोडा इतनी जल्दी नहीं छोड़ा जाता भाई, पहले कुछ राज्यों पर परचम तो लहरा कर ही चक्रवर्ती बना जा सकता है....
अरे, अभी अभी मेरे कानों में मेरी माँ की आज दोपहर की उसकी एक बात फिर गूंज उठी---- ठंडा करके नहीं खा सकते क्या ? जल्दबाजी में गरम –गरम खाने की कोशिश करोगे तो मुँह जलेगा ही..
जगजीत सिंह साहब की एक ग़ज़ल आज बहुत याद आ रही है----
“प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है”.....................
जय हिन्द !! वन्दे मातरम !!
डॉ राजेश गर्ग.
(कृपया अपनी बात को तर्क सहित रखिये- चाहे विरोध हो या समर्थन )...
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